पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५९

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१२० गीतारहस्य अथवा कर्मयोशास्त्र। ज्ञान के साथ ऐश्वर्य, अथवा शान्ति के साथ पुष्टि, हमेशा होना ही चाहिये । ऐसा कहने पर कि शान के साथ ऐश्वर्य होना अत्यावश्यक है, कर्म करने की श्रावश्य- कता आप ही आप उत्पन्न होती है। क्योंकि मनु का कथन है कि "कमाण्यार- भमाणां हि पुरुष श्रीनिपवते " (मनु. ६.३००) कर्म करनेवाले पुरुष को ही इस जगत् में श्री अर्थात् ऐश्वर्य मिलता है और प्रत्यक्ष अनुभव से भी यही बात सिद्ध होती है एवं गीता में जो उपदेश अर्जुन को दिया गया है यह भी ऐसा ही (गी. ३.८)। इस पर कुछ लोगों का कहना है कि मौज्ञ की दृष्टि से क्रम की आवश्यकता न होने के कारण अन्त में, अर्थात् ज्ञानोत्तर अवस्था में, सय वमों को छोड़ देना ही चाहिये । परंतु यहाँ तो केवल सुख-दुःख का विचार करना है, और अब तक मोक्ष तथा कर्म के स्वरूप की परीक्षा भी नहीं की गई है, इसलिये उक्त भाक्षेप का उत्तर यहाँ नहीं दिया जा सकना चागे नवे तथा दसवें मकरण में अध्यात्म और कर्मविपाक का स्पष्ट विवेचन करके ग्यारहवें प्रकरण में बतला दिया जायगा कि यह साक्षेप मी बेसिर-पैर का है। सुख और दुःख दो भिन्न तथा स्वतंत्र वेदनाएँ . सुसंच्चा फेवल सुखोपभोग से ही तृप्त नहीं हो सकती, इसलिये संसार में यहुधा दुःख का ही यधिक अनुभव होता है; परंतु इस दुःख को टालने के लिये तृपणा या असंतोप और सम कर्मों का भी समूल नाश करना उचित नहीं; उचित यही है कि फज्ञाशा छोड़ कर सय कमी को करते रहना चाहियः केवल विपयोपभोग-सुख कमी पूर्ण होनेवाला नहीं- वह अनित्य और पशुधर्म है, अतएव इस संसार में बुद्धिमान मनुष्य का सच्चा ध्येय इस अनित्य पशु-धर्म से ऊंचे दर्जे का होना चाहिये प्रात्मबुद्धि-प्रसाद से प्राप्त होनेवाला शांति-सुख ही वह सच्चा ध्येय है। परंतु आध्यात्मिक सुख ही याप इस प्रकार ऊंचे दर्जे का हो, तथापि उसके साथ इस सांसारिक जीवन में ऐहिक वस्तुओं की भी बचित्त आवश्यकता है। और, इसी लिये सदा निष्काम बुद्धि से प्रयत्न अर्थात् कर्म करते ही रहना चाहिये:- इतनी सब बातें जव कर्मयोगशास्त्र के अनुसार सिद्ध हो चुकी, तो अब सुख की दृष्टि से भी विचार करने पर यह बतलान की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती,किश्राधिौतिक सुखों को ही परम साध्य मान कर कमी के केवल सुख-दुःखात्मक वाल परिणामों तारतम्य से ही नीतिमत्ता का निर्णय करना अनुचित है । कारण यह है कि जो वस्तु कभी पूर्णावस्या को पहुँच ही नहीं सकती, उसे परम साध्य कहना मानो परम' शुब्द का दुरुपयोग करके मृगजल के स्थान में जल की खोज करना है। जब हमारा परम साध्य ही अनित्य तथा अपूर्ण है, तव उसकी अाशा में बैठे रहने से हमें वनित्य वस्तु को छोड़ कर और मिलेगा ही क्या ? "धो नित्यःसुख-दुःखत्वनित्ये" इस वचन का मर्म भी यही है। "अधिकांश लोगों का अधिक सुख" इस शब्दसमूह के सुखशब्द के अर्थ के विषय में नाधिभौतिकवादियों में भी बहुत मतभेद है। उनमें से बहुतेरों का कहना है कि बहुधा मनुष्य सय विषय-सुखों को लात मार कर केवल