पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१६०

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सुखदुःखविवेक। सत्य अथवा धर्म के लिये जान देने को भी तैयार हो जाता है, इससे यह मानना अनुचित है कि मनुष्य की इच्छा सदैव आधिभौतिक सुख-प्राप्ति की ही रहती है। इसलिये उन पंडितों ने यह सूचना की है, कि सुख शब्द के बदले में हित अथवा कल्याण शब्द की योजना करके " अधिकांश लोगों का अधिक सुख" इस सूत्र का रूपान्तर "अधिकांश लोगों का अधिक हित या कल्याण कर देना चाहिये। परन्तु, इतना करने पर भी, इस मत में यह दोष बना ही रहता है, कि कर्ता की बुद्धि का कुछ भी विचार नहीं किया जाता । अच्छा, यदि यह कहैं कि विषय-सुखों के साथ मानसिक सुखों का भी विचार करना चाहिये, तो उसके आधिभौतिक पक्ष की इस पहली ही प्रतिज्ञा का विरोध हो जाता है कि किसी भी कर्म की नीतिमत्ता का निर्णय केवल उसके बास परिणामों से ही करना चाहिये-और तब तो किसी न किसी अंश में अध्यात्म-पक्ष को ही स्वीकार करना पड़ता है। जव इस रीति से अध्यात्म-पक्ष को स्वकिार करना ही पड़ता है, तो उसे अधूराया अंशतः स्वीकार करने से क्या लाभ होगा? इसी लिये हमारे कर्मयोग-शास्त्र में यह अन्तिम सिद्धान्त निश्चित किया गया है, कि सर्वभूतहित, अधिकांश लोगों का आधिक सुख और मनुष्यत्व का परम उत्कर्ष इत्यादि नीति-निर्णय के सब बाय साधनों को अथवा आधिभौतिक मार्ग को गौण या अप्रधान समझना चाहिये और आत्मप्रसाद-रूपी आत्यन्तिक सुख तथा उसी के साथ रहनेवाली कर्ता की शुद्ध बुद्धि को ही आध्यात्मिक कसौटी जान कर उसी से कर्म-अकर्म की परीक्षा करनी चाहिये। उन लोगों की वात छोड़ दो, जिन्हों ने यह कसम खा ली हो कि हम दृश्य सृष्टि के परे तत्वज्ञान में प्रवेश ही न करेंगे। जिन लोगों ने ऐसी कसम खाई नहीं है, उन्हें युक्ति से यह मालूम हो जायगा कि मन और वाद्ध के भी परे जा कर नित्य आत्मा के नित्य कल्याण को ही कर्मयोग-शास्त्र में प्रधान मानना चाहिये। कोई कोई भूल से समझ बैठते हैं, कि जहाँ एक बार वेदान्त में घुसे कि बस, फिर सभी कुछ ब्रह्ममय हो जाता है और वहाँ व्यवहार की उपपत्ति का कुछ पता ही नहीं चलता। आज कल जितने वेदान्त-विषयक ग्रन्थ पढ़े जाते हैं वे प्रायः संन्यास मार्ग के अनुयायियों के ही लिखे हुए हैं, और सन्यास मार्ग- वाले इस तृष्णारूपी संसार के सव व्यवहारों को निःसार समझते हैं, इसलिये उनके अन्थों में कर्मयोग की ठीक ठीक उपपत्ति सचमुच नहीं मिलती । अधिक क्या कहें; इन पर-संप्रदाय-साहिष्णु ग्रन्थकारों ने संन्यासमार्गीय कोटिक्रम यायुक्ति- वाद को कर्मयोग में सम्मिलित करके ऐसा भी प्रयत्न किया है कि जिससे लोग समझने लगे हैं, कि कर्मयोग और संन्यास दो स्वतन्त्र मार्ग नहीं है, किन्तु संन्यास ही अकेला शास्त्रोक्त मोक्षमार्ग है। परन्तु यह समझ ठीक नहीं है। संन्यास मार्ग के समान कर्मयोग मार्ग भी वैदिक धर्म में अनादि काल से स्वतन्त्रतापूर्वक चला आ रहा है और इस मार्ग के संचालकों ने चेदान्ततत्वों को न छोड़ते हुए कर्म-शास्त्र की ठीक ठीक उपपत्ति भी दिखलाई है। भगवद्गीता अन्य इसी पन्थ का है। यदि गीता को छोड़ दें, तो भी आन पड़ेगा कि अध्यात्मष्टि से कार्य-अकार्य-शास्त्र के विवेचन गी. र..१६