गीतारहस्य प्रयया कर्मयोगशास्त्र। शुद्ध मनोदेवता किसे कहना चाहिये, तब इस पंथ में भी दूसरी अनेक अपरिहार्य वाया उपस्थित हो जाती हैं। कोई भी यात लीजिये, कहने की आवश्यकता नहीं है कि, उसके बारे में नली भाँति विचार करना यह ग्राम है अथवा अप्राय है, करने के योग्य है या नहीं, उससे लाभ अथवा सुख होगा या नहीं, इत्यादि बातों को निश्चित करना-नाक अथवा घाँस का काम नहीं है कि यह काम स स्वतंत्र इंद्विय का है जिसे मन कहते हैं । अर्थात, कार्य प्रकार्य अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय मन ही करता है। चाहे श्राप उसे इंद्रिय कहें या देवता । यदि आधिदैविक पंय का सिर्फ यही कहना हो, तो कोई आपत्ति नहीं । परनु पश्चिमी प्राधिदेवत पक्ष इससे एक ढग और भी आगे यहा हुआ है। उसका यह कथन है कि, मला अयवा युरा (सन् अथवा असन), न्याय, यवा अन्यास्त्र, धनं अथवा अधर्म का निर्णय करना एक बात है और इस बात का निर्णय करना दूसरी यात ई, कि अमुक पदार्य मारी है या हलका है, गोरा ई या बाला, अयया गणित का कोई उदाहरण सही है या गलत । ये दोनों यात अत्यंत भिन्न है। इनमें से दूसरे प्रकार की यातों का निर्णय न्यायज्ञान का आधार ले कर मन कर सकता है। परन्तु पहले प्रकार की बातों का निर्णय करने के लिये संचल मन असमय है, अतएव यह कान सदसद्विवचन-शक्तिरूप देवता ही किया करता है जो कि हमारे मन में रहता है। इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि जब हम किती गणित के उदाहरण की जाँच करके निश्चय करते हैं कि वह सही है या गलत, तर हम पहले उसके गुगा, जोड़ आदि की जाँच कर लेते हैं और फिर अपना निश्चय स्थिर करते हैं। अयां इस निक्षत्र के स्थिर होने के पहले मन को अन्य क्रिया या व्यापार करना पड़ता है। परन्नु भले-बुर का निर्णय इस प्रकार नहीं किया जाता | जब हम यह सुनते हैं कि, किसी एक आदमी ने किसी दूसरे को जान से मार डाला, तब हमारे मुंह से एकाएक यह हार निकल पड़ते हैं " राम राम ! उसने बहुत बुरा काम किया!" और इस विषय में हन कुछ भी विचार नहीं करना पड़ता। अतरव, यह नहीं कहा जा सकता कि, कुछ मी विचार न करके चार ही पार जो निर्णय हो जाता है, और जो निर्णय विचारपूर्वक किया जाता है, वे दोनों एक ही मनोवृत्ति के व्यापार हैं । इसलिये यह मानना चाहिये कि सदस- द्विवेचन शक्ति भी एक स्वतंत्र मानसिक देवता है । सब मनुष्यों के अंतःकरण में यह देवता या शक्ति एक ही सी जागृत रहती है, इसलिये हत्या करना सभी लोगों को दीप प्रतीत होता है और उसके विषय में किसी को कुछ सिखलाना भी नहीं पड़ता । इस आधिदैविक युकिवाद पर आधिनीतिक पन्य के लोगों का यह उत्तर है कि, सिर्फ " हम एक-आध बात का निर्णय एकदन कर सकते हैं । इतने ही से यह नहीं माना जा सकता कि, जिस बात का निर्णय विचारपूर्वक न्यिा जाता है वह उससे भिन्न है। किसी काम को जल्दी अथवा धीरे काना अभ्यास पर अवलस्थित है। उदाहरणार्य, गणित का विषय लीजिये ।न्यापारी लोग मन के .
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