आधिदेवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । १२७ शां. १२४.६६) । इससे पाठकों के ध्यान में यह बात आजायगी कि लोगों का हित हो नहीं सकता' और 'लजा मालूम होती है। इन दो पदों से अधि- कांश लोगों का अधिक हित' और 'मनोदेवता ' इन दोनों पक्षों का इस श्लोक में एक साथ कैसा उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति ( १२.३५,३७) में भी कहा गया है कि, जिस कर्म के करने में लजा मालूम होती है वह तामस है, और जिसके करने में लना मालूम नहीं होती, एवं अंतरात्मा संतुष्ट होता है, वह साविक है । धम्म- पद नामक बौद्धग्रन्थ (६७ और ६८) में भी इसी प्रकार के विचार पाये जाते हैं। कालिदास भी यही कहते हैं, कि जब कर्म-अकर्म का निर्णय करने में कुछ सन्देह हो तय- सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।। "सत्पुरुष लोग अपने अन्तःकरण ही की गवाही को प्रमाण मानते हैं" (शाक. १. २०) पातंजल योग इसी बात की शिक्षा देता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन को किसी एक ही विषय पर कैसे स्थिर करना चाहिये और यह योग- शास्त्र हमारे यहाँ बहुत प्राचीन समय से प्रचलित है। अतएव जब कभी कर्म- अकर्म के विषय में कुछ सन्देह उत्पन्न हो तब, हम लोगों को किसी से यह सिखाये जाने की आवश्यकता है, कि 'अन्तःकरण को स्वस्थ और शान्त करने से जो उचित मालूम हो, वही करना चाहिये।' सय स्मृति-अन्यों के आरम्भ में, इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं कि, स्मृतिकार ऋपि अपने मन को एकाग्र करके ही धर्म-अधर्म यतलाया करते थे (मनु. १.१)। यों ही देखने से तो, 'किसी काम में मन की गवाही लेना' यह मार्ग अत्यंत सुलभ प्रतीत होता है, परन्तु जब इम तत्वज्ञान की प्टि से इस यात का सूक्ष्म विचार करने लगते हैं कि । मन' किसे कहना चाहिये तय यह सरल पंथ अंत तक काम नहीं दे सकता; और यही कारण है कि हमारे शास्त्रकारों ने कर्मयोगशास की इमारत इस कची नांव पर खड़ी नहीं की है। अब इस बात का विचार करना चाहिये कि यह तत्वज्ञान कौन सा है। परन्तु इसका विवेचन करने के पहले यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि पश्चिमी आधिभौतिकवादियों ने इस आधिदैवतपक्ष का किस प्रकार खंडन किया है। कारण यह है कि, यद्यपि इस विषय में आध्यात्मिक और आधिभौतिक पन्थों के कारण भित भित है, तथापि उन दोनों का अंतिम निर्णय एक ही सा है। अतएव, पहले साधिभौतिक कारणों का उल्लेख कर देने से, माध्यात्मिक कारणों की महत्ता और सयुक्तता पाठकों के ध्यान में शीघ्र आजायगी। अपर कह आये हैं कि साधिदैविक पंथ में शुद्ध मन को ही अप्रस्थान दिया गया है। इससे यह प्रगट होता है कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख- वाले आधिभौतिक नीतिपन्प में कर्ता की बुद्धि या हेतु के कुछ भी विचार न किये जाने का जो दोप पहले बतलाया गया है, वह इस आधिदैवतपन में नहीं है । परन्तु जब हम इस बात का सूक्ष्म विचार करने लगते हैं कि सदसद्विवेकरूपी
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