पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७१

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१३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । मनुष्य-देह में बाहर के माल को भीतर लेने के लिये ज्ञानेन्द्रिय-रूपी द्वार हैं और भीतर का माल बाहर भेजने के लिये कर्मेन्द्रिय-रूपी द्वार हैं । सूर्य की किरणें किसी पदार्थ पर गिर कर जब लौटती हैं और हमारे नेत्रों में प्रवेश करती हैं तव हमारे आत्मा को उस पदार्थ के रूप का ज्ञान होता है। किसी पदार्थ से आनेवाली गन्ध के सूक्ष्म परमाणु जव हमारी नाक के मजातन्तुओं से टकराते हैं तब हमें उस पदार्थ की वास आती है। अन्य ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार भी इसी प्रकार हुआ करते हैं। जव ज्ञानेन्द्रियाँ इस प्रकार अपना व्यापार करने लगती हैं तब हमें उनके द्वारा वाह्य सृष्टि के पदार्थों का ज्ञान होने लगता है। परन्तु ज्ञानेन्द्रियाँ जो कुछ व्यापार करती हैं उसका ज्ञान स्वयं उनको नहीं होता, इसी लिये ज्ञानेन्द्रियों को 'ज्ञाता' नहीं कहते, किन्तु उन्हें सिर्फ बाहर के माल को. भीतर ले जानेवाले 'द्वार' ही कहते हैं। इन दरवाज़ों से माल भीतर आजाने पर उसकी व्यवस्था करना मन का काम है। उदाहरणार्थ,वारह बजे जव घड़ी में घण्टे बजने लगते हैं तब एकदम हमारे कानों को यह नहीं समझ पड़ता कि कितने बजे हैं किंतु ज्या ज्या घड़ी में 'टन् टन्' की एकएक आवाज़ होती जाती है त्या त्या इवा की लहरें हमारे कानों पर आकर टकर मारती हैं, और मजातन्तु के द्वारा प्रत्येक आवाज़ का हमारे मन पर पहले अलग अलग संस्कार होता है और अन्त में इन सवों को जोड़ कर हम यह निश्चय किया करते हैं कि इतने बजे हैं। पशुओं में भी ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं । जब घड़ी की 'टन टन्' आवाज़ होती है तब प्रत्येक ध्वनि का संस्कार उनके कानों के द्वारा मन तक पहुँच जाता है। परन्तु उनका मन इतना विकसित नहीं रहता कि वे उन सव संस्कारों को एकत्र करके यह निश्चित कर लें कि वारह बजे हैं। यही अर्थ शास्त्रीय परिभाषा में इस प्रकार कहा जाता है कि, यद्यपि अनेक संस्कारों का पृथक् पृथक् ज्ञान पशुओं को हो जाता है, तथापि उस अनेकता की एकता का बोध उन्हें नहीं होता । भगवद्गीता (३. ४२) में कहा है:- इन्द्रियाणि परा- रयाहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः" अर्थात् इन्द्रियाँ (बाह्य) पदार्थों से श्रेष्ठ है और मन इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ है। इसका भावार्थ भी वही है जो ऊपर लिखा गया है । पहले कह आये हैं कि, यदि मन स्थिर न हो तो आँखें खुली होने पर भी कुछ देख नहीं पड़ता और कान खुले होने पर भी कुछ सुन नहीं पड़ता । तात्पर्य यह है कि, इस देहरूपी कारखाने में 'मन' एक मुंशी (क्लर्क) है, जिसके पास बाहर का सव माल ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भेजा जाता है और यही मुंशी (मन) उस माल की जाँच किया करता है। अब इन बातों का विचार करना चाहिये कि, यह जाँच किस प्रकार की जाती है, और जिसे हम अब तक सामान्यतः 'मन' कहते श्राये हैं, उसके भी और कौन कौन से भेद किये जा सकते हैं, अथवा एक ही मन को भिन्न मिन्न अधिकार के अनुसार कौन कौन से भिन्न भिन्न नाम प्राप्त हो जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन पर जो संस्कार होते हैं उन्हें प्रथम एकत्र करके और उनकी परस्पर तुलना करके इस बात का निर्णय करना पड़ता है कि, उनमें से अच्छे