आधिदेवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार। १३३ कौन से हैं और बुरे कौन से हैं, प्राय अथवा त्याज्य कौन से हैं, और लाभदायक तथा हानिकारक कौन से हैं। यह निर्णय हो जाने पर उनमें से जो यात अच्छी, ग्राह्य, लाभदायक, उचित अथवा करने योग्य होती है उसे करने में हम प्रवृत्त हुआ करते हैं। यही सामान्य मानसिक व्यवहार है। उदाहरणार्थ, जब हम किसी बगीचे में जाते हैं तब, आँख और नाक के द्वारा, वाग के वृक्षों और फूलों के संस्कार हमारे मन पर होते हैं । परन्तु जब तक हमारे प्रात्मा को यह ज्ञान नहीं होता कि, इन फूलों में से किसकी सुगन्ध अच्छी और किसकी बुरी है, तब तक किसी फूल को प्राप्त कर लेने की इच्छा मन में उत्पन्न नहीं होती और न हम उसे तोड़ने का प्रयत्न ही करते हैं। अतएव सब मनोव्यापारों के तीन स्थूल भाग हो सकते हैं:- (१)ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बाह्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके उन संस्कारों को तुलना के लिये व्यवस्थापूर्वक रखना; (२) ऐसी व्यवस्था हो जाने पर उनके अच्छेपन या बुरेपन का सार-असार-विचार करके यह निश्चय करना कि कौन सी बात माय है और कौन सी त्याज्य और (३) निश्चय हो चुकने पर, प्राय वस्तु को प्राप्त कर लेने की और अग्राह्य को त्यागने की इच्छा उत्पन हो कर फिर उसके अनुसार प्रवृत्ति का होना । परन्तु यह आवश्यक नहीं कि, ये तीनों व्यापार विना रुकावट के लगातार एक के बाद एक होतेही रहे । सम्भव है कि पहले किसी समय भी देखी हुई वस्तु की इच्छा आज हो जाय; किन्तु इतने ही से यह नहीं कह सकते कि उक्त तीनों क्रियाओं में से किसी भी क्रिया की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि न्याय करने की कचहरी एक ही होती है, तथापि उसमें काम का विभाग इस प्रकार किया जाता है। पहले वादी और प्रतिवादी अथवा उनके वकील अपनी अपनी गवाहियाँ और सुबूत न्यायाधीश के सामने पेश करते हैं, इसके बाद न्यायाधीश दोनों पक्षों के सुबूत देख कर निर्णय स्थिर करता है, और अंत में न्याया- धारी के निर्णय के अनुसार नाजिर कारवाई करता है। ठीक इसी प्रकार जिस मुंशी को अभी तक हम सामान्यतः 'मन' कहते आये हैं, उसके व्यापारों के भी विभाग हुआ करते हैं। इनमें से, सामने उपस्थित बातों का सार-प्रसार-विचार करके यह निश्चय करने का काम (अर्थात् केवल न्यायाधीश का काम) 'घुद्धि' नामक इन्द्रिय का है, कि कोई एक बात अमुक प्रकार ही की (एवमेव) है, दूसरे प्रकार की नहीं (नाऽन्यथा)। ऊपर कहे गये सब मनोव्यापारों में से इस सार-प्रसार-विवेक शक्ति को अलग कर देने पर सिर्फ बचे हुए व्यापार ही जिस इन्द्रिय के द्वारा हुआ करते है, उसी को सांख्य और वेदान्तशास्त्र में “मन' कहते हैं (सां. का. २३ और २७ देखो)। यही मन वकील के सश, कोई बात ऐसी है (संकल्प), अथवा इस के विरुद्ध वैसी है (विकल्प), इत्यादि कल्पनाओं को बुद्धि के सामने निर्णय करने के लिये पेश किया करता है । इसी लिये इसे 'सझल्प-विकल्पात्मक' अर्थात् बिना निश्चय किये केवल कल्पना करनेवाली, इन्द्रिय कहा गया है। कभी कभी सङ्कल्प ' शब्द में निश्चय ' का भी अर्थ शामिल कर दिया जाता है (छांदोग्य
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