» गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । नहीं कर सकती यानी जो बुद्धि हमेशा भूल किया करती है, वह राजसी है (१८.३१)। और अंत में, कहा है कि- अथमै धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ अर्थात् “अधर्म को ही धर्म माननेवाली, अथवा सव वातों का विपरीत या उलटा निर्णय करनेवाली, बुद्धि तामसी कहलाती है" (गी. १८. ३२)। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि, केवल भले-बुरे का निर्णय करनेवाली, अर्थात् सदसद्विवेक- बुद्धिरूप स्वतंत्र और भिन्न देवता, गीता को सम्मत नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सदैव ठीक ठीक निर्णय करनेवाली बुद्धि हो ही नहीं सकती ! उपर्युक्त श्लोकों का भावार्थ यही है कि, बुद्धि एक ही है, और ठीक ठीक निर्णय करने का सात्विक गुण, उसी एक बुद्धि में पूर्व संस्कारों के कारण, शिक्षा से तथा इन्द्रिय- निग्रह अथवा आहार आदि के कारण, उत्पन्न हो जाता है और, इन पूर्वसंस्कार प्रभृति कारणों के प्रभाव से ही, वह बुद्धि, जैसे कार्य-अकार्य-निर्णय के विषय में वैसे ही अन्य दूसरी यातों में भी, राजसी अथवा तामसी हो सकती है। इस सिद्धान्त की सहायता से भली भाँति मास्लुम हो जाता है कि, चोर और साह की बुद्धि में, तथा भिन्न भिन्न देशों के मनुष्यों की बुद्धि में, भिन्नता क्यों हुआ करती है । परन्तु जब हम सदसद्विवेचन-शक्ति को स्वतंत्र देवता मानते हैं, तब उक्त विषय की उप- पत्ति ठीक ठीक सिद्ध नहीं होती । प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपनी बुद्धि को साविक बनावे । यह काम इन्द्रियनिग्रह के बिना हो नहीं सकता । जब तक व्यवसायात्मक बुद्धि यह जानने में समर्थ नहीं है कि मनुष्य का हित किस यात में है और जब तक वह उस वात का निर्णय या परीक्षा किये विना ही इन्द्रियों के इच्छानुसार आचरण करती रहती है, तब तक वह बुद्धि शुद्ध नहीं कही जा सकती । अतएव बुद्धि को मन और इन्द्रियों के अधीन नहीं होने देना चाहिये। किन्तु ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे मन और इन्द्रियाँ वुद्धि के अधीन रहें। भगवद्गीता (२.६७,६८, ३.७, ४३६. २४-२६ ) से यही सिद्धान्त अनेक स्थानों में बतलाया गया है। और यही कारण है कि कठोपनिषद् में शरीर को रथ की उपमा दी गई है तथा यह रूपक वाँधा गया है कि उस शरीररूपी स्थ में जुते हुए इन्द्रियरूपी घोड़ों को विषयोपभोग के मार्ग में अच्छी तरह चलाने के लिये (व्यव- सायात्मक) बुद्धिरूपी सारथी को मनोमय लगाम धीरता से खींचे रहना चाहिये (कठ. ३.३-६) । महाभारत (वन. २१०, २५, स्त्री. ७. ५३, अश्व.५५.५) में भी वही रूपक दो तीन स्थानों में, कुछ हेरफेर के साथ, लिया गया है। इन्द्रियनिग्रह के इस कार्य का वर्णन करने के लिये उक्त दृष्टान्त इतना अच्छा है कि प्रीस के प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता प्लेटो ने भी, इन्द्रियनिग्रह का वर्णन करते समय इसी रूपक का उपयोग अपने ग्रंथ में किया है (फीडूस. २४६) । भगवद्गीता में, यह
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७९
दिखावट