आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रशविचार । १४१ दृष्टान्त प्रत्यक्ष रूप से नहीं पाया जाता; तथापि इस विषय के सन्दर्भ की पोर जो ध्यान देगा उसे यह बात अवश्य मालूम हो जायगी कि, गीता के उपर्युक्त श्लोकों में इन्द्रियनिग्रह का वर्णन इस दृष्टान्त को लक्ष्य करके ही किया गया है। सामान्यतः, अर्थात् जय शास्त्रीय सूक्ष्म भेद करने की आवश्यकता नहीं होती तय, उसी को मनोनिग्रह भी कहते हैं। परन्तु जय 'मन' और 'बुद्धि' में, जैसा कि ऊपर कह आये हैं, भेद किया जाता है तब निग्रह करने का कार्य मन को नहीं किन्तु व्यवसायात्मक बुद्धि को ही करना पड़ता है। इस व्यवसायात्मक बुद्धि को शुद्ध करने के लिये, पातंजल-योग की समाधि से, भक्ति से, ज्ञान से अथवा ध्यान से पर- मेश्वर के यथार्थ स्वरूप को पहचान कर, यह तव पूर्णतया युति में भिद जाना चाहिये कि, 'सब प्राणियों में एक ही आत्मा है। इसी को शात्मनिष्ठ शुद्धि कहते हैं। इस प्रकार जब व्यवसायात्मक बुद्धि आत्मनिष्ठ हो जाती है, और मनोनिग्रह की सहायता से मन और इन्द्रियाँ उसकी अधीनता में रह कर आना- नुसार आचरण करना सीख जाती हैंतब इच्छा, यासना आदि मनोधर्म (अर्थात् वासनात्मक सुद्धि) आप ही नाप शुन्ध और पवित्र हो जाते हैं, और शुद्ध सात्विक कौ की और देहेन्द्रियों की सहज ही प्रवृत्ति होने लगती है। अध्यात्म की दृष्टि से यही सब सदाचरणों की जड़ अर्थात् कर्मयोगशास्त्र का रहस्य है। ऊपर किये गये विवेचन से पाठक समझ जावेंगे कि, हमारे शासकारों ने मन और बुद्धि की स्वाभाविक घृत्तियों के अतिरिक्त सदसद्विवेक-शक्तिरूप स्वतन्त्र देवता का अस्तित्व क्यों नहीं माना है। उनके मतानुसार भी मन या बुद्धि का गौरव करने के लिये इन्हें 'देवता' कहने में कोई हर्ज नहीं है। परन्तु तात्विक दृष्टि से विचार करके उन्होंने निश्चित सिद्धान्त किया है कि जिसे हम मन या बुद्धि कहते हैं उससे भिन्न और स्वयंभू 'सदसद्विवेक' नामक किसी तीसरे देवता का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। सतां हि संदेहपदेषु वचन के 'सतां' पद की उपयुक्तता और महत्ता भी अव भली भाँति प्रकट हो जाती है। जिनके मन शुद्ध और आत्मनिष्ठ है, वे यदि अपने अन्तःकरण की गवाही लें तो कोई अनुचित बात न होगी; अथवा यह भी कहा जा सकता है कि, किसी काम को करने के पहले उनके लिये यही उचित है कि वे अपने मन को अच्छी तरह शुद्ध करके उसी की गवाही लिया करें। परन्तु, यदि कोई चोर कहने लगे कि ' मैं भी इसी प्रकार आचरण करता हूँ' तों यह कदापि उचित न होगा। क्योंकि, दोनों की सदसद्विवेचन-शक्ति एक ही सी नहीं होती-सत्पुरुषों की बुद्धि सात्विक और चोरों कि तामसी होती है। सारांश, आधिदैवत पक्षवालों का सदसद्विवेक-देवता' तत्वज्ञान की दृष्टि से स्वतन्त्र देवता सिद्ध नहीं होता; किन्तु हमारे शास्त्रकारों का सिद्धान्त है कि वह तो व्यवसायात्मक बुद्धि के स्वरूपों ही में से एक आत्मनिष्ठ अर्थात् साविक स्वरूप है। और, जव यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है, तब आधिदैवत पक्ष आप ही कमज़ोर हो जाता है। जव सिद्ध हो गया कि आधिभौतिक-पक एकदेशीय तथा अपूर्ण है और आधि-
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