पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१८६

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- आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । का यदि वह स्वयं विपय न हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसी अभिप्राय से वृहदारण्यकोपनिपद में याज्ञवल्क्य ने कहा है "अरे! जो सब बातों को जानता. है उसको जाननेवाला दूसरा कहाँ से प्रासंकता है?" -विज्ञातारसरे केन विजा- मीयात् (बृ. २. ४. १४)। अतएव, अन्त में यही सिद्धान्त करना पड़ता है, कि इस चेतनाविशिष्ट सजीव शरीर (क्षेत्र) में एक ऐसी शक्ति रहती है जो हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से ले कर प्राण, चेतना, मन और बुद्धि जैसे परतन्त्र एवं एकदेशीय नौकरों के भी परे है जो उन सब के व्यापारों की एकता करती है और उनके कार्यों की दिशा बतलाती है अथवा जो उनके कर्मों की नित्य साक्षी रह कर उनसे भिन्न, अधिक ध्यापक और समर्थ है। सांख्य और वेदान्तशास्त्रों को यह सिद्धान्त मान्य है; और, अर्वाचीन समय में जर्मन तत्वज्ञ कान्ट ने भी कहा है कि बुद्धि के व्यापारी का सूक्ष्म निरीक्षण करने से यही तत्व निष्पन्न होता है। मन, बुद्धि, अहंकार और चेतना, ये सब, शरीर के अर्थात् क्षेत्र के गुण अथवा अवयव हैं । इनका प्रवर्तक इनसे भिन्न, स्वतन्त्र और उनके परे है, -“यो बुद्धः परतस्तु सः" (गी. ३. ४२)। सांख्यशास्त्र में इसी का नाम पुरुप है; थेदान्ती इसी को क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र का जाननेवाला आत्मा कहते हैं। और, मैं हूँ' यह प्रत्येक मनुष्य को होने वाली प्रतीति ही प्रात्मा के अस्तित्व का सर्वोत्तम प्रमाण है (वेसू. शांभा. ३. ३. ५३.५४)। किसी को यह नहीं मालूम होता कि 'मैं नहीं हूँ। इतना ही नहीं; किन्तु मुख से मैं नहीं हूँ' शब्दों का उच्चारण करते समय भी नहीं हूँ इस क्रियापद के कर्ता का, अर्थात् 'मैं ' का, अथवा आत्मा का या 'अपना अस्तित्व वह प्रत्यक्ष शति से माना ही करता है। इस प्रकार 'मैं' इस अहं. कारयुक्त सगुण रूप से, शरीर में, स्वयं अपने ही को व्यक्त होनेवाले आत्मतत्व के अर्थात् क्षेत्र के असली, शुद्ध और गुणविरहित स्वरूप का यथाशक्ति निर्णय करने के लिये वेदान्तशास्त्र की उत्पत्ति हुई है (गी. १३. ४)। तथापि, यह निर्णय केवल शरीर अर्थात् क्षेत्र का ही विचार करके नहीं किया जाता । पहले कहा जा चुका है, कि क्षेत्र-क्षेत्र के विचार के अतिरिक्त यह भी सोचना पड़ता है कि वाय सृष्टि (ब्रह्माण्ड) का विचार करने से कौन सा तत्व निप्पन्न होता है। ब्रह्मांड के इस विचार का ही नाम 'क्षर-अक्षर-विचार' है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार से इस बात का निर्णय होता है, कि क्षेत्र में (अर्थात शरीर या पिंड में) कौन सा मूल तत्त्व (क्षेत्रज्ञ या आत्मा) है; और क्षर-अक्षर-विचार से बाहा सृष्टि के अर्थात् ब्रह्मांड के मूलतत्व का ज्ञान होता है। जब इस प्रकार पिंड और ब्रह्मांड के मूल- तत्वों का पहले पृथक् पृथक् निर्णय हो जाता है, तब वेदान्तशास्त्र में अन्तिम सिद्धान्त किया जाता है कि ये दोनों तत्त्व एकरूप अर्थात् एक ही हैं- यानी

  • हमारे शाखों के क्षर-अक्षर-विचार और क्षेत्र-क्षेत्रश-विचार के वर्गीकरण से ग्रीन

साहब परिचित न थे। तथापि, उन्हों ने अपने Proleromence to Bthics ग्रन्थ के आरम्भ में अध्यात्म का जो विवेचन किया है उसमें पहले Spiritual Principle in 1