१४६ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । न कभी अलग अलग हो जायेंगे। अब हन सोचना चाहिये, कि यह धागा कौन सा है? यह बात नहीं है कि गीता को संघात मान्य न हो; परतु उसको गणना क्षेत्र ही में की जाती है (गो. १३.६) संघात से इस बात का निर्णय नहीं होता, कि क्षेत्र का स्वामी अर्थात् जेवन कौन है। कुछ लोग समझते हैं, कि समुच्चय में कोई नया गुण उत्पन्न हो जाता है। परनु पहल नो यह मत ही सत्य नहीं, क्योंकि तत्वज्ञों ने पूर्ण विचार करके सिद्धान्त कर दिया है कि जो पहले किती भी रूप से अस्तित्व में नहीं था, वह इस जार में नया टत्पन्न नहीं होता (गी. २. १६) । यदि हम इस लिद्धान्त को जग मर के लिये एक और घर दें तो भी यह प्रश्न सहज ही उपस्थित हो जाता है, कि संघात में उत्पन्न होनेवाला यह नया गुण ही क्षेत्र का स्वामी क्यों न माना जाय ? इस पर कई अर्वाचीन भाघिनौतिकशात्रज्ञों का कथन है कि अन्य और उनमें गुण भिन्न मिन नहीं रह सकते, गुण के लिये किसी न रिसी अधिष्ठान की आवश्यकता होती है। इसी कारण समुच्चापन गुण के बदले ये लोग समुच्चय ही क्रो इस क्षेत्र का स्वामी मानते हैं। ठीक है पस्नु, फिर च्यवहार में भी 'अति' शब्द के बदले लकड़ी, 'विद्युन् ' के बदले मेव, अयचा पृथ्दी की 'आमपंण-शक्ति के बदले पृथ्वी ही क्यों नहीं कहा जाता? यदि यह यात निविवाद सिद्ध है कि, क्षेत्र के सत्र च्या- पार चवत्यापूर्वक सचित रीति से मिल जुल कर चलते रहने के लिये, मन और बुद्धि के सिवा, किसी भिन्न शकिका अस्तित्व अत्यन्त आवश्यक है और, यदि यह वात सब हो, शि उस शक्ति का अधिटान अव तक हमारे लिये आय है, अथवा उस शक्ति या अघिष्टान का पूर्ण वल्प टीम को नहीं बतलाया जा सकता है तो यह कहना, न्यायोचित कैसे हो सकता है कि वह शनि है ही नहीं ? जैसे कोई भी मनुष्य अपने ही कंधे पर ये नहीं समता से ही यह भी नहीं कहा जा सकता, कि संघाव-सम्बन्धी ज्ञान स्वयं संघात ही प्राप्त कर लेता है । अतएव, तक की धष्टि से भी, यही दृढ़ अनुमान किया जाता है, कि देहद्रिय आदि लंबात के व्यापार जिसके उपनांग के लिये अथवा लाम के लिये हुआ करते हैं. वह संघात से निच ही है। यह तस्व, जो कि संघात से मिन्न है, स्वयं सब बातों को जानता है, इसलिये यह चात सच है कि वृष्टि के अन्य पदायों के लश यह स्वयं अपने ही लिये ज्ञेय, अर्थात् गोचर हो नहीं सकता; पल्तु इससे उसके अस्तित्व में कुछ बाधा नहीं पड़ सकती, क्योंकि यह नियम नहीं है कि सब पदायों को एक ही श्रेणी या वर्ग, नसे 'जय' में शामिल कर देना चाहिये । सर पनायों के वर्ग या विभाग होते हैं। से ज्ञाता और शेय-अर्थात् जाननेवाला और जानने की वस्तु । और, जब कोई वस्तु दूसरे वर्ग (य) में शामिल नहीं होती, तब उसका समावेश पहले वर्ग (ज्ञाता) में हो जाता है, एवं उसका अस्तित्व भी शेव वस्तु के समान ही पूर्णतया सिद्ध होता है। इतना ही नहीं; किन्तु यह भी कहा जा सकता है, कि संवात के परे जो आत्मतत्व है वह स्वयं ज्ञाता है, इसजिये बसको होनेवाले ज्ञान
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