सातवाँ प्रकरण। कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार। प्रकृति पुरुष चैव विद्वथनादी उभावपि । * गीता १३.१६॥ पिछले प्रकरण में यह यात पतला दी गई है कि शरीर और शरीर के स्वामी 'या अधिष्ठाता क्षेत्र और क्षेत्र के विचार के साथ ही साथ घश्य सृष्टि और उसके मूलतप-क्षर और अक्षर--का भी विचार करने के पश्चात् फिर आत्मा के स्वरूप का निर्णय फरना पड़ता है। इस धार-अतर-सृष्टि का योग्य रीति से वर्णन करनेवाले तीन शास्त्र हैं। पहला न्यायशास्त्र और दूसरा कापिल सांख्यशास्त्र परन्तु इन दोनों शाखों के सिद्धान्तों को सपूर्ण ठहरा कर चेदान्तशास्त्र ने महा- स्वरूप का निर्णय एक तीसरी ही रीति से किया है । इस कारण वेदान्त-प्रति- पादित उपपति का विचार करने के पहले हमें न्याय और सांख्य शासों के सिद्धान्तों पर विचार करना चाहिये । पादरायणाचार्य के वेदान्तसूत्रों में इसी पद्धति से काम लिया गया है और न्याय तथा सांख्य के मतों का दूसरे प्रध्याय में खंडन किया गया है । यद्यपि इस विषय का यहाँ पर विस्तृत पनि नहीं करसफते, तपापि इम ने सन यातों का उल्लेख इस प्रकरण में और अगले प्रकरण में स्पष्ट कर दिया है कि जिनकी भगवद्गीता का रहस्य समझने में आवश्यकता है। नैग्यायिकों के सिद्धान्तों की अपेक्षा सांस्य-वादियों के सिद्धान्त अधिक महत्व के हैं। इसका कारण यह है कि कणाद के न्यायमतों को किसी भी प्रमुख वेदान्ती ने स्वीकार नहीं किया है, परन्तु कापिल सांख्यशास के बहुत से सिद्धान्तों का उलेख मनु आदि के स्मृतिप्रन्यों में तथा गीता में भी पाया जाता है। यही बात बादरायणाचार्य ने भी (वे. सू. २. १. १२ मार २. २. १७) कही है । इस कारण पाठकों को सांख्य के सिद्धान्तों का परिचय प्रथम ही होजाना चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि वेदान्त में सांख्यशास के बहुत से सिद्धान्त पाये जाते हैं परन्तु स्मरण रहे कि सांख्य और घेदान्त के अन्तिम सिद्धान्त, एक दूसरे से, बहुत भिन्न हैं । यहाँ एक प्रश्न उप- स्थित होता है कि, वेदान्त और सांख्य के जो सिद्धान्त आपस में मिलते जुलते हैं उन्हें पहले किसने निकाला था-वेदान्तियों ने या सांख्य-वादियों ने ? परन्तु इस अन्य में इतने गहन विचार में प्रवेश करने की मावश्यकता नहीं। इस प्रश्न का उत्तर •"प्रकृति और पुरुप, दोनों को अनादि जानो।'
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