गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तीन प्रकार से दिया सकता है पहला यह नि, शायद उपनिषद् (वेदान्त) और सांग्य दोनों की वृद्धि, दो सगे भाइयों के समान, साथ ही साय हुई हो और उप- निपदों में जो सिद्धान्त सांथ्यों के मतों के समान देय पड़ते हैं उन्हें उपनिषत्कारी ने स्वतंत्र रीति से खोज निकाला हो। दूसरा यह कि, कदाचिन् कुछ सिद्धान्त साल्य. शास्त्र से ले कर वेदान्तियों ने न्हें वेदान्त के अनुफल स्वरूप दे दियादीतीसरायह कि, प्राचीन वेदान्त के सिद्धान्तों में ही कपिलायं ने अपने मत के अनुसार कुछ परिवर्तन और सुधार कर सांव्यशान की टत्पत्ति कर दी हो । इन तीनों में से तीसरी वात ही अधिक विश्वसनीय जात होती है। क्योंकि यद्यपि वेदान्त और सांख्य दोनों बहुत प्राचीन है, तथापि उनमें वेदान्त या पनिपद सांग्य से भी अधिक प्राचीन (श्रीत) हैं। प्रस्तु: यदि पहले हम न्याय और सांख्य के सिदान्तों को अच्छी तरह समझ लें तो फिर वेदान्त के पितः गीता. प्रतिपादित वेदान्त के तव जल्दी समझ में आ जायेंगे। इसलिये पहले हमें इन बात का विचार करना चाहिये कि इन दो मा शास्त्रों का, नर-प्रनर-सृष्टि की रचना के विषय में, क्या मत है। बहुतेरे लोग न्यायशास्त्र का यही उपयोग समझते हैं कि किसी विवक्षित अथवा गृहीत बात से तर्क के द्वारा कुछ अनुमान कैसे निकाले जावे; और इन मनु- मानों में से यह निर्णय कैसे किया जाये कि कौन सही है और कौन में गलत हैं। परंतु यह भूल है। अनुमानादिप्रमागावंड न्यायशान का एक भाग है सही; परंतू यही कुछ उसका प्रधान विपय नहीं है। प्रभागों के अतिमि, मुष्टि की अनेक वस्तुओं का यानी प्रमेय पदायाँ का वर्गीकरण का नीचे के वर्ग से उपर के वर्ग की और उतै जाने से सृष्टि के रूप पदायों के मूल वर्ग दिखने हैं, उनके गुण-धनं झ्या है, टनले अन्य पढ़ायों की उत्पत्ति केले होती है और ये यातें किस प्रकार सिद्ध हो सकती हैं, इत्यादि अनेक प्रश्नों का भी विचार न्यायशास्त्र में किया गया है। यही कहना उचित होगा कि यह शास्त्र केवल अनुमानखंड का विचार करने के लिये नहीं, दरन् उक्त प्रश्नों का विचार करने ही के लिये निमाल किया गया है कणाद के न्यायसूत्रों का नाम और पाने की रचना भी इसी प्रकार की है। कणाद के अनुयायियों को राणाद कहते हैं। इन लोगों का कहना है कि अगर का मूल कारण परमाणु ही हैं। परमाणु के विषय में कणाद की और पश्चिमी आभिनौतिकशास्त्रहो की, व्याख्या एक ही समान है। किसी भी पदार्य का विभाग करते करते अंत में जब विभाग नहीं हो सकता तब उसे परमाणु (परम+ अणु) कहना चाहिये । जैसे जैसे ये परमाणु एकत्र होते जाते हैं वैसे वैसे संयोग के कारण टनमें नये नये गुण उत्पन होते हैं और मिस मिल पदार्य बनते जाते हैं। मन और आत्मा के भी परमाणु होते हैं, और, जब वे एकत्र होते हैं तब चैतन्य की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी, बल, तेन और वायु के परमाणु स्वभाव ही से पृथक् पृथक् है। पृथ्वी के मूल परमाणु में चार गुण (रूप, रस, गंध, सर्ग) 1
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