पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । को, न केवल हमी प्रत्युत पाठक भी धन्यवाद दें। अब अन्त में पूफ संशोधन का काम रह गया; जिसे श्रीयुत रामकृष्ण दत्तात्रेय पराड़कर, रामकृष्ण सदाशिव पिंपु. रकर और श्रीयुत हरि रघुनाथ भागवत ने स्वीकार किया । इसमें भी, स्थान-स्थान पर अन्यान्य ग्रन्थों का जो उल्लेख किया गया है, उनको मूल प्रन्यों से ठीक ठीक जाँचने एवं यदि कोई व्यंग रह गया हो तो उसे दिखलाने का काम श्रीयुत हरि रघुनाथ भागवत ने अकेले ही किया है । यिना इनकी सहायता के इस अन्य को हम, इतनी शीघ्रता से, प्रकाशित न कर पाते । अतएव हम इन सब को हृदय से धन्यवाद देते हैं । अव रही छपाई, जिसे चित्रशाला छापखान के स्वत्या- धिकारी ने सावधानीपूर्वक शीघ्रता से छाप देना स्वीकार कर तदनुसार इस कार्य को पूर्ण कर दिया; इस निमित्त अन्त में इनका भी उपकार मानना आवश्यक है । खेत में फसल होजाने पर भी फसल से अनाज तैयार करने, और भोजन करनेवालों के मुंह में पहुँचने तक, जिस प्रकार अनेक लोगों की सहायता अपेक्षित रहती है, सी हो फुछ अंशों में प्रन्यकार की-कम से कम हमारी तो अवश्य-स्थिति है। अतएव उक्त रोतिसे जिन लोगों ने हमारी सहायता की है-फिर बाहं उनके नाम यहां आये हों, अथवा न भी आये हों-उनको फिर एक पार धन्यवाद दे कर हय इस प्रस्तावना को समाप्त प्रस्तावना समाप्त हो गई । अब जिस विषय के विचार में बहुतेरे वर्ष बीत गये हैं, और जिसके नित्य सहवास एवं चिन्तन से मन को समाधान हो कर मानन्द होता गया, वह विषय आज अन्य के रूप में हाथ से पृथक् होनेवाला है यह सोच कर यद्यपि बुरा लगता है, तथापि सन्ताप इतना ही है कि ये विचार सघ गये तो व्याज सहित, अन्यथा ज्यों के त्यों-~अगली पीढ़ी के लोगों को देने के लिये ही हमें प्राप्त हुए थे । अतएव वैदिक धर्म के, राजगुह्य के इस पारस की कठोपनिषद "उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्य वरानियोधत !" ( क. ३. १४)-उठो ! जागो ! और (भगवान् के दिये हुए ) इस वर को समझ लो-इस मन्त्र से होनहार पाठकों को प्रेमोदकपूर्वक सौंपते हैं । प्रत्यक्ष भगवान् का ही निश्चयपूर्वक यह आश्वासन है कि, इसी में कर्म-अकर्म का सारा वीज है और इस धर्म का स्वल्प आवरण भी बड़े बड़े संकटों से बचाता है। इससे अधिक और क्या चाहिये ? सृष्टि के इस नियम पर ज्यान दे कर कि “ विना किये कुछ होता नहीं है," तुम को निष्काम बुद्धि से कार्यकता होना चाहिये, वस फिर सब कुछ होगया। निरी स्वार्थ परायण बुद्धि से गृहस्थी चलाते चलाते जो लोग हार कर थक गये हों, उनका समय बिताने के लिये, अथवा संसार को छुड़ा देने की तैयारी के लिये, गोता नहीं कही गई है । गीताशास्त्र की प्रति तो