पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१९१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । के सामने जितनी सामग्री यी, उसी के आधार पर उन्होंने अपने सिद्धान्त ढूंढ निकाले हैं । तयापि, यह आश्चर्य की यात है कि, सृष्टि की वृद्धि और उसकी घटना के विषय में सांख्य शास्त्रकारों के तात्त्विक सिद्धान्त में, और अवांचीन आधि- भौतिक शास्त्रकारों के तान्त्रिक सिद्धान्त में, बहुत सा भेद नहीं है । इसमें संदेह नहीं कि, टिशास्त्र के ज्ञान की वृद्धि के करण, वर्तमान समय में, इस मत की प्राधिभौतिक उपपत्ति का वर्णन अधिक नियमबद्ध प्रणाली से किया जा सकता है। और आधिभौतिक ज्ञान की वृद्धि के कारण हमें व्यवहार की दृष्टि से भी बहुत लाम चुआ है। परन्तु आधिभौतिकशासकार भी 'एक ही अव्यक्त प्रकृति से अनेक प्रकार की व्यक सृष्टि कैसे हुई। इस विषय में, कपिल की अपेक्षा कुछ अधिक नहीं यतला सकते । इस यात को भली भांति समझा देने के लिये ही हमने आगे चल कर, बीच बीच में, कपिल के सिद्धान्तों के साथ ही साय, कल के सिद्धान्तों का मी, तुलना के लिये, संक्षित वर्णन किया है। कल ने अपने अन्य में साफ़ साफ़ लिख दिया है कि, मैंने ये सिद्धान्त कुछ नये सिरे से नहीं खाने । यर डाबिन, स्पेन्सर, इत्यादि पिछले आधिभौतिक पंडितों के ग्रन्या के आधार से ही मैं अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता हूँ। क्यापि, पहले पहल उसी ने इन सब सिद्धान्तों को ठीक ठीक नियमानुसार लिख कर सरलतापूर्वक उनका एकत्र वर्णन अपने विव की पहेली' नामक ग्रंथ में किया गया है। इस कारण, सुभीते के लिये, हमने से ही सत्र आधिभौतिक तत्वज्ञों का मुखिया माना है और उसी के मतों का, इस प्रकरण में, त्या अगले प्रकरण में, विशेष उल्लेख किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह देख दहुत ही संक्षिप्त है। परंतु इससे अधिक इन सिद्धान्तों का विवेचन इस ग्रंथ में नहीं मिया जा सकता । जिन्हें इस विषय का विस्तृत वर्णन पड़ना हो उन्हें सेन्सर, ढाविन, हेकल आदि पंडितों के मूल अन्यों का अवलोकन करना चाहिये। कपिल के सांत्यशास्त्र का विचार करने के पहले यह कह देना उचित होगा कि "सांख्य' शब्द के दो भिन्न भिन्न अयं शेते हैं। पहला अर्य, कपिलाचार्य द्वारा प्रतिपादित 'सांख्यशान है। इसी का उल्लेख इस प्रकरण में, तया एक बार भगवद्गीता (R) में भी, मिया गया है । पलु, इस विशिष्ट अर्य के सिवा सब प्रकार के तत्वज्ञान को भी सामान्यतः 'सांत्य' ही कहने की परिपाटी है और इसी 'साल्य' शब्द में वेदान्तशास्त्र का नी-समावेश किया जाता है। सांख्य. निटा' अयवा सांख्ययोन शब्दों में 'सांख्य' का यही सामान्य अर्थ अनीष्ट है। इस निटा के ज्ञानी पुरुषों को भी भगवद्गीता में जहां (गी. २. ३ ३.३ ५. ४,५; और १३.२४) 'सांख्य' कहा है, वहाँ सांख्य शब्द का अर्थ केवल कापिल

The Riddle of the Universe, by Ernst Haeokel, HRY B. P.A. Cheap reprint आवृत्ति का ही हनने संघ उपयोग किया है।