कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार । १५३ सांख्यमार्गी ही नहीं है पर उसमें, आत्म-अनात्म-विचार से सव कर्मों का संन्याल करके ब्रह्मज्ञान में निमग्न रहनेवाले पैदान्तियों का भी, समावेश किया गया है। शब्द-शास्त्रज्ञों का कथन है कि सांख्य' शब्द 'सं-ख्या' धातु से बना है इसलिये इसका पहला अर्थ 'गिननेवाला' है और कपिल-शास के मूलतत्व इने गिन सिर्फ पचीस ही है। इसलिये उसे गिननेवाले' के अर्थ में यह विशिष्ट 'सांख्य ' नाम दिया गया; अनन्तर फिर सांख्य' शब्द का अर्थ बहुत व्यापक हो गया और उसमें सब प्रकार के तत्त्वज्ञान का समावेश होने लगा । यही कारण है कि जय पहले पहल कल्पित-भिनुत्रों को सांख्य' कहने की परिपाटी प्रचलित हो गई, तब वेदांती संन्यासियों को भी यही नाम दिया जाने लगा होगा। कुछ भी हो; इस प्रकरण का हमने जान बूझ कर यह लंबा चौड़ा · कापिल सांख्यशास्त्र' नाम इसलिये रखा है कि सांख्य शब्द के उक्त अर्थ-भेद के कारण कुछ गड़बड़ न हो। कापिल सांख्यशास्त्र में भी, कणाद के न्यायशास के समान, सूत्र हैं। परन्तु गौडपादाचार्य या शारीर-भाष्यकार श्रीशनराचार्य ने इन सूत्रों का आधार अपने अन्यों में नहीं लिया है, इसलिये बहुतेरे विद्वान् समझते हैं कि ये सूत्र कदा- चित् प्राचीन न हो। ईश्वरकृपण की 'साल्यकारिका' उक्त सूत्रों से प्राचीन मानी जाती है और उस पर शंकराचार्य के दादागुरु गौड़पाद ने भाप्य लिखा है। शांफर भाष्य में भी इसी कारिका के कुछ अवतरण लिये गये हैं । सन् ५७० ईस्वी से पहले इस ग्रन्थ का जो भापांतर चीनी भाषा में हुआ था वह इस समय उप- लब्ध है । ईश्वरकृष्ण ने अपनी कारिका के अंत में कहा है कि पटितंत्र' नामक साठ प्रकरणों के एक प्राचीन और विस्तृत अन्य का भावार्थ (कुछ प्रकरणों को छोड़) सत्तर प्रार्या-पद्यों में इस अन्य में दिया गया है। यह पष्टितंत्र ग्रंथ प्रय उपलब्ध नहीं है। इसी लिये इन कारिकाओं के आधार पर ही कापिल सांख्यशास्त्र के मूल सिद्धान्तों का विवेचन हमने यहाँ किया है। महाभारत में सांख्य मत का निरूपण कई अध्यायों में किया गया है। परन्तु उसमें पेदान्त-मतों का भी मिश्रण- अब पोस ग्रन्यों से ईश्वरकृष्ण का यहुत कुछ हाल जाना जा सकता है । पोख पण्डित पसुबंधु का गुरु, ईश्वरकृष्ण का समकालीन प्रतिपक्षी था। वसुबन्धु का जो जीवन- चरित, परमार्थ ने ( सन् ई. ४९९-५६९ में ) चांनी भाषा में लिखा था वह अब प्रकाशित हुआ है। इससे साटर टयाकम ने यह अनुमान किया है कि ईश्वरकण का समय सन् 840 fonal Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain & Ireland, 1905 pp. 33-53. परन्तु डाक्टर विन्सेण्ट स्मिथ की राय है कि स्वयं वसुबन्धु का समय ही चौथी सदी में (लगभग २८०-३६०) होना चाहिये। क्योंकि उसके अन्यों का अनुवाद सन् ४०४ ईस्वी में, चीनी भापा में हुआ है। वसुबन्धु का समय इस प्रकार जब पीछे हट जाता है, सब उसी प्रकार ईश्वरकृष्ण का समय भी करीव २०० वर्ष पीछे हटाना पड़ता है। अर्थात सन् २४० ईस्वी के लगभग ईश्वरकृष्ण का समय मा Vincent Smith's Early History of India, 3rd Ed. p.328. गी.र, २०
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