पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१९६

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कापिलसांख्यशास्त्र अथवा,क्षराक्षरविचार । १५७ नहीं है। किंतु मूल में सब वस्तुओं का न्यएक ही है । अर्वाचीन रसायन शास्त्रज्ञों ने भिश भिन्न द्रव्यों का पृथकरण करके पहले ६२ मूलतत्व हूँढ़ निकाले थे; परन्तु अब पश्चिमी विज्ञानवेत्ताओं ने भी यह निश्चय कर लिया है कि ये ६२ मूलतत्व स्वतंत्र या स्वयंसिद्ध नहीं है, किंतु इन सब की जड़ में कोई न कोई एक ही पदार्थ है और उस पदार्थ से ही सूर्य, चंद्र, तारागण, पृथ्वी इत्यादि सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है। इसलिये अव उक्त सिद्धान्त का अधिक विवेचन आवश्यक नहीं है। जगत् के सय पदार्थों का जो यह मूल द्रव्य है उसे ही सांख्यशास्त्र में “ प्रकृति " कहते हैं। प्रकृति का अर्थ " मूल का" है। इस प्रकृति से आगे जो पदार्थ बनते हैं उन्हें "विकृति" अर्थात मूल द्रव्य के विकार कहते हैं। परन्तु यद्यपि सब पदार्थों में मूलद्रव्य एक ही है तथापि, यदि इस सूलगन्य में गुण भी एक ही हो तो सत्कार्य-वादानुसार इस एक ही गुण से अनेक गुणों का उत्पन्न होना संभव नहीं है। और, इधर तो जब हम इस जगत के पत्थर, मिट्टी, पानी, सोना इत्यादि भिन्न भिन पदार्थों की ओर देखते हैं, तब उनमें भिन्न भिन्न अनेक गुण पाये जाते हैं ! इसलिये पहले सय पदार्थों के गुणों का निरीक्षण करके सांख्या वादियों ने इन गुणों के सत्व, रज और तम ये तीन भेद या वर्ग कर दिये हैं. इसका कारण यही है कि, जब हम किसी भी पदार्थ को देखते हैं तब स्वभावत- उसकी दो भिन्न भिन्न अवस्थाएँ देख पड़ती हैं:-पहली शुद्ध, निर्मल या पूर्णा- वस्था और दूसरी उसके विरुद्ध निकृष्टावस्था । परन्तु, साथ ही साथ निकृष्टावस्था से पूर्णावस्था की ओर बढ़ने की उस पदार्थ की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर हुआ करती है, यही तीसरी अवस्था है। इन तीनों अयस्थाओं में से शुद्धावस्था या पूर्णाः वस्था को साविक, निकृष्टावस्था को तामसिक और प्रर्वतकावस्था को राजसिक कहते हैं। इस प्रकार सांख्य-बादी कहते हैं, कि सत्त्व, स्व और तम तीनों गुण सब पदार्थों के मूलद्रव्य में अर्थात् प्रकृति में प्रारम्भ से ही रहा करते हैं । यदि यह कहा जाय कि इन तीन गुणों ही को प्रकृति कहते हैं, तो. अनुचित नहीं होगा । इन तीनों गुणों में से प्रत्येक गुण का ज़ोर प्रारम्भ में समान या बरावर रहता है, इसी लिये पहले पहल यह प्रकृति साम्यावस्था में रहती है । यह साम्यावस्था जगत् के प्रारम्भ में घी, और, जगत का लय हो जाने पर वैसी ही फिर हो जायगी। साम्यावस्था में कुछ भी हलचल नहीं होती, सब कुछ स्तब्ध रहता है। परन्तु जय उक्त तीनों गुण न्यूनाधिक होने लगते हैं तब प्रवृत्त्यात्मक रजोगुण के कारण मूल प्रकृति से भिन्न भिन पदार्थ होने लगते हैं और सृष्टि का प्रारम्भ होने लगता है । श्रय यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि पहले सत्व, रज और तम ये तीनों गुण साम्यावस्था में थे, तो इनमें न्यूनाधिकता कैसे हुई है । इस प्रक्ष का सांख्य-वादी यही उत्तर देते हैं, कि यह प्रकृति का मूल धर्म ही है (सां. का.६३) । यद्यपि प्रकृति जड़ है तथापि वह आप ही श्राप सय व्यवहार करती रहती है। इन तीनों गुणों में से सत्व गुण का लक्षण ज्ञान अर्थात् जानना और