गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला हो चुका है कि उक्त नियम कर्म-शक्ति के विषय में भी लगाया जा सकता है । यह यात याद रखनी चाहिये कि, यद्यरि आधुनिक पदार्थविज्ञान-शास्त्र का और सांख्य. शान का सिद्धान्त देखने में एक ही सा जान पड़ता है, तथापि सांग्य-वादियों का सिद्धान्त केवल एक पदार्थ से दूसरे पदार्य की उत्पत्ति के ही विषय में अर्यात् सिर्फ कार्यकारण-भाव ही के संबंध में उपयुक्त होता है। परन्तु, अवांचीनपदार्यविज्ञान- शाच का सिद्धान्त इससे अधिक व्यापक है । 'कार्य' का कोई भी गुण 'कारण' के बाहर के गुणों से उत्पन्न नहीं हो सकता; इतना ही नहीं, किन्तु जब कारण को कार्य का स्वरूप प्राप्त होता है तब उस कार्य में रहने- वाले द्रव्यांश और कर्मशक्ति का कुछ भी नाश नहीं होता; पदार्य की मिन मिन्न अवस्याओं के द्रव्यांश और कर्म-शक्ति के जोड़ का वज़न भी सदैव एक ही सा रहता है तो वह घटता है और न बढ़ता है । यह बात प्रत्यन प्रयोग से गणित के द्वारा सिद्ध कर दी गई है। यही टक दोनों सिद्धान्तों में महाच की विशेपता है । इस प्रकार जय इन विचार करते हैं तो हम जान पड़ता है कि भगवद्गीता के " नासतो विद्यत भावः "सो है ही नहीं उसका कमी भी अस्तित्व ही नहीं सकता इत्यादि सिद्धान्त जो दूसरे अध्याय के प्रारम्भ में दिये गये है (गी. २. १६), वै यद्यपि देखने में सत्कार्य-वाद के समान देख पड़ें तो भी उनकी समता केवल कार्यकारणामक सत्कार्य-बाद की अपेक्षा अवांचीन पदायविज्ञान-शास्त्र के सिद्धान्तों के साथ अधिक है। छान्दोग्योपनिषद् के उपर्युक वचन का भी यही भावार्य है । सारांश, सत्कार्य-वाद का सिद्धान्त वैद्रान्तियों को मान्य है। परन्तु मद्वैत- वेदान्तशास्त्र का मत है कि इस सिद्धांत का उपयोग सगुण सृष्टि के परे कुछ भी नहीं किया जा सकता; और निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति कैसे देख पड़ती है, इस बात की उपपचि और ही प्रकार से लगानी चाहिये । इस वेदान्त-मत का विचार आगे चल कर अध्यात्म-प्रकरण में विस्तृत रीति से किया जायगा । इस समय तो हमें सिर्फ यही विचार करना है कि सांख्य वादियों की पहुँच कहाँ तक है, इसलिये अब हम इस बात का विचार करेंगे कि सत्कार्य-वाद का सिद्धान्त मान कर सांस्यों ने वर-अक्षरशास्त्र में उसका उपयोग कैसे किया है। सांख्य-मतानुसार जब सत्कार्यवाद सिद्ध हो जाता है, तय यह मत प्राप ही आप गिर जाता है कि दृश्य सृष्टि की उत्पति शून्य से हुई है । क्योंकि, शून्य से अर्थात् जो कुछ भी नहीं है। स्लले 'जो अस्तित्व में है। वह उत्पन्न नहीं हो सकता। इस बात से यह साफ़ साफ़ सिद्ध होता है, कि सृष्टि किसी न किसी पदार्य से उत्पन्न हुई है और, इस समय सृष्टि में जो गुण हमें देख पड़ते हैं वे ही इस मूलपदार्य में भी होने चाहिये । अव यदि हम सृष्टि की ओर देखें तो इम वृक्ष, पशु, मनुष्य, पत्यर, सोना, चाँदी, हीरा, जल, वायु, इत्यादि भनेक पदार्थ देख पढ़ते हैं और इन सव के रूप तया गुण भी भिन्न भिन्न हैं। साल्य- चादियों का सिद्धान्त है कि यह मिन्नता या नानात्व, आदि में, अर्याद मूलपदार्य में,
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