कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार । को स्पष्ट रीति से गोचर हो सकते हैं सय व्यक्त' कहलाते हैं। चाहे फिर चे पदार्थ अपनी आकृति के कारण, रूप के कारण, गंध के कारण या किसी अन्य गुण के कारण प्यक होते हो। व्यक्त पदार्थ छानेक हैं। उनमें से कुछ, जैसे पत्थर, पेड़, पशु इत्यादि रशूल कहलाते हैं और कुछ, जैसे मन, बुद्धि, श्राकाश इत्यादि (यद्यपि ये इन्द्रिय-गोचर प्रर्थात् प्यक्त है) तथापि सूक्ष्म कहलाते हैं । यही ' सूक्ष्म ' से छोटे का मतलब नहीं है क्योंकि आकाश यद्यपि सूक्ष्म है तथापि यह सारे जगत् में सर्वन घ्याप्त है । इसलिये, सूक्ष्म शब्द से 'स्यूल के विरुद्ध ' या वायु से भी अधिक महीन, यही अर्थ लेना चाहिये। धूल' और 'सुक्ष्म' शब्दों से किसी यस्तु की शरीर-रचना का ज्ञान होता है और 'ध्यक' एवं 'अन्यक्त 'शब्दों से हमें यह योध होता है कि उस वस्तु का प्रत्यक्ष शान में हो सकता है, या नहीं। अतएव भिन्न भिन्न पदार्थों में से (चाहे वे दोनों सूक्ष्म हो तो भी) एफ व्यक और दूसरा अव्यक्त हो सकता है । उदाहरणार्थ, यद्यपि इवा सूक्ष्म है तथापि हमारी पर्शेन्द्रिय को उसका ज्ञान होता है, इसलिये उसे व्यक्त कहते हैं और सय पदार्थों की मूल प्रकृति (या मूलद्रव्य) घायु से भी अत्यंत सूक्ष्म है और उसका ज्ञान इमारी किसी इन्द्रिय को नहीं होता, इसलिये उसे अव्यक्त कहते है । अय, यही प्रश्न हो सकता है कि यदि इस प्रकृति का ज्ञान किसी भी इन्द्रिय को नहीं होता, तो उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिये क्या प्रमाण है? इस प्रश्न का उत्तर सांख्य-वादी इस प्रकार देते है कि, अनेक प्यत पदार्थों के अपलोकन से सत्कार्य वाद के अनुसार यही अनुमान सिद्ध होता है कि इन सब पदार्यों का मूल रूप, (प्रकृति) यद्यपि इन्द्रियों को प्रत्यक्षा-गोचर न हो तथापि उसका अस्तित्व सूक्ष्म रूप से अवश्य होना ही चाहिये (सां. का.८)। वैज्ञान्तियों ने भी ग्रह का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये इसी युक्ति को स्वीकार किया है (कठ. ६.१२,१३ पर शांकर भाग्य देखो)। यदि हम प्रकृति को इस प्रकार अत्यंत सूक्ष्म और अध्यात मान लें तो नैय्यायिकों के परमाणु-बाद की जड़ ही उखड़ जाती है क्योंकि परमाणु यद्यपि अव्यक्त और असंख्य हो सकते हैं, तथापि प्रत्येक परमाणु के स्वतंत्र व्यक्ति या अवयव हो जाने के कारण यह प्रम फिर भी शेष रह जाता है कि दो परमाणुशों के बीच में कौन सा पदार्थ है ? इसी कारण सांख्यशास्त्र का सिद्धान्त है कि, प्रकृति में परमाणु रूप नवयप-भेद नहीं है, किन्तु वह सदैव एक से एक लगी हुई, बीच में थोड़ा भी अन्सर न छोड़ती हुई, एक ही समान है अथवा यो कहिये कि यह अव्यक्त (अर्थात् इन्द्रियों को गोचर ग होनेवाले) और निरवयव रूप से निर- तर और सर्वत्र है । परना का वर्णन करते हुए दासबोध (२०. २. ३)में श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं जिधर देखिये उधर ही वह अपार है, उसका किसी और पार नहीं है। वह एक ही प्रकार का और स्वतंत्र है, उसमें द्वैत (या और कुछ) नहीं है * I" सांख्यवादियों की प्रकृति के विषय में भी यही हिन्दीन्दासबोध, पृष्ठ ४८१ (चित्रशाला, पूना)।
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१९८
दिखावट