गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । वर्णन उपयुक्त हो सकता है । त्रिगुणात्मक प्रकृति अव्यक, स्वयंभू और एक ही प्रकार की है और वह चारों और निरंतर व्याप्त है । आकाश, वायु आदि भेद पीछे से हुए और यद्यपि वै सूक्ष्म है तथापि व्यक हैं; और इन सब की मूल प्रकृति एक ही सी तथा सर्वव्यापी और अव्यक्त है । स्मरण रहे कि, वेदान्तियों के 'परब्रह्म में और सांस्य-वादियों की प्रकृति' में आकाश-पाताल का अन्तर हैं। इसका कारण यह है कि, परब्रह्म चैतन्यरूप और निपुण है। परन्तु प्रति जड़प और सत्त- रज-तमोमयी अर्थात् सगुण है। इस विषय पर अधिक विचार आगे किया जायगा। यहाँ सिर्फ यही विचार करना है कि सांख्य-वादियों का मत क्या है। जव हम इस प्रकार 'सूक्ष्म' और 'स्थूल,' 'व्यक्त' और 'अव्यक' शब्दों का अर्थ समझ लेंगे, तव कहना पड़ेगा कि सृष्टि के आरंभ में प्रत्येक पदार्थ सूक्ष्म, और अन्यक्त, प्रकृति के रूप से रहता है, फिर बह (चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल हो) व्यंक्त अर्थात् इन्द्रिय- गोचर होता है, और जव प्रलयकाल में इस व्यक्त स्वरूप का नाश होता है तव फिर वह पदार्थ अव्यक्त प्रकृति में मिलकर अव्यक्त हो जाता है । गीता में भी यही मत देख पड़ता है (गी. २.२८ और ८.१८)। सांख्यशास्त्र में इस अव्यक प्रकृति ही को 'अक्षर' भी कहते हैं, और प्रकृति से होनेवाले सव पदार्थों को 'क्षर कहते हैं । यहाँ 'क्षर' शब्द का अर्थ संपूर्ण नाश नहीं है, किन्तु सिर्फ व्यक स्वरूप का नाश ही अपेक्षित है । प्रकृति के और भी अनेक नाम हैं, जैसे प्रधान, गुण-क्षोभिणी, बहुधानक, प्रसव-धर्मिणी इत्यादि । सृष्टि के सब पदार्थों का मुख्य मूल होने के कारण उसे (प्रकृति को) प्रधान कहते हैं। तीनों गुणों की साम्यावस्था का मंग स्वयं आप ही करती है इसलिये उसे गुण-क्षोभिणी कहते हैं। गुणत्रयरूपी पदार्थ-भेद के यीज प्रकृति में हैं इसलिये उसे बहुधानक कहते हैं और, प्रकृति से ही सय पदार्थ उत्पन्न होते हैं इसलिये उसे प्रसव-धर्मिणी कहते हैं। इस प्रकृति ही को वेदान्तशास्त्र में 'माया' अर्थात् मायिक दिखावा, कहते हैं। सृष्टि के सव पदार्थों को व्यक्त' और 'अध्यक्त' या 'क्षर और अक्षर इन दोविभागों में बाँटने के बाद, अय यह सोचना चाहिये कि, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार में यतलाये गये आत्मा, मन, बुद्धि, अहंकार और इंन्द्रियों को सांख्य मत के अनुसार, किस विभाग या वर्ग में रखना चाहिये । क्षेत्र और इन्द्रियाँ तो जड़ ही हैं, इस कारण उन का समावेश व्यक्त पदार्थों में हो सकता है परन्तु मन, अहंकार, बुद्धि और विशेष करके आत्मा के विषय में क्या कहा जा सकता है? यूरोप के वर्तमान समय के प्रसिद्ध दृष्टिशास्त्रज्ञ इकल ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि मन, बुद्धि, अहंकार और आत्मा ये सब, शरीर के धर्म ही हैं । उदाहरणार्थ, हम देखते हैं कि जब मनुष्य का मस्तिष्क बिगड़ जाता है तब उसकी स्मरण-शक्ति नष्ट हो जाती है और वह पागल मी हो जाता है। इसी प्रकार सिर पर चोट लगने से जवमस्तिष्क का कोई भाग बिगड़ जाता है तब भी उस भाग की मानसिक शक्ति नष्ट हो जाती है । सारांश यह है कि, मनोधर्म भी जड़ मस्तिष्क के ही गुण हैं। श्रतएव वे जड़ वस्तु से
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