3 १६२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाब। वाला और जड़ प्रकृति, इस दोनों बातों को मूल से ही पृथक् पृथक् मानना चाहिये (सां. का. १७)। पिछले प्रकरण में जिसे चैत्रज्ञ या आत्मा कहा है, वही यह देखनेवाला, ज्ञाता या उपभोग करनेवाला है और इसे ही सांख्यशास्त्र में पुरुष या 'ज्ञ' (ज्ञाता) कहते हैं। यह ज्ञाता प्रकृति से मिन्न है इस कारण निसर्ग से ही प्रकृति के तीनों (सत्व, रज और तम) गुणों के परे रहता है। अर्थात यह निर्विकार और निर्गुण है, और जानने या देखने के सिवा कुछ भी नहीं करता। इससे यह भी मालूम हो जाता है कि जगत् में जो घटनाएं होती रहती हैं वे सब प्रकृति ही के खेल हैं। सारांश यह है, कि प्रकृति अचंतन या जड़ है और पुरुष सचेतन है। प्रकृति सच काम किया करती है और पुरुष उदासीन या अकर्ता है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है और पुरुष निर्गुण है; प्रकृति अंधी है और पुरुष सादी है। इस प्रकार इस सृष्टि में यही दो मिन भिन्न तत्व अनादिसिद्ध, स्वतंत्र और स्वयंभू हैं, यही सांख्यशास्त्र का सिद्धान्त है। इस बात को ध्यान में रख करके ही भगवनीता में पहले कहा गया है कि " प्रकृति पुरुषं चैव वियनादी उभावपि" -प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं (गी. १३.१६); इसके बाद उनका वर्णन इस प्रकार किया गया है " कार्य-कारणकर्तृत्व हेतुः प्रकृतिरुच्यते " अर्थात देह और इन्द्रियों का व्यापार प्रकृति करती है और " पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तत्व हेतुरुच्यते " अर्थात् पुरुष सुखदुःखों का उपभोग करने के लिये, कारण है। यद्यपि गीता में भी प्रकृति और पुरुष मनादि माने गये हैं, तथापियह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि. सांख्य-वादियों के समान, गीता में ये दोनों तत्त्व स्वतंत्र या स्वयंभू नहीं माने गये हैं। कारण यह है कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति को अपनी 'माया' कहा है (गी. ७. १४, १४.३) और पुरुष के विषय में भी यही कहा है कि "ममैवांशी जीवलोके" (गी. अर्थात् वह भी मेरा अंश है। इससे मालूम हो जाता है कि गीता, सांख्यशास्त्र से मी आगे बढ़ गई है। परंतु अभी उस बात की ओर ध्यान न दे कर हम यही देखेंगे कि सांख्यशास्त्र क्या कहता है। सांख्यशास्त्र के अनुसार सृष्टि के सब पदार्थों के तीन वर्ग होते हैं। पहला अव्यक (मूल प्रकृति), दूसरा व्यक्त (प्रकृति के विकार), और तीसरा पुरुष अर्थात् ।। परंतु इनमें से प्रलयकाल के समय व्यक्त पदार्थों का स्वरूप नष्ट हो जाता है। इसलिये श्रय मूल में केवल प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व शेप रह जाते हैं। ये दोनों मूल तत्त्व, सांख्य-वादियों के मतानुसार अनादि और स्वयंभू हैं इसलिये सांख्या को द्वैत-वादी (दो मूल तत्व माननेवाले) कहते हैं। वे लोग, प्रकृति और पुरुष के परे ईश्वर, काल, स्वभाव या अन्य किसी भी मूल तत्व को नहीं मानते।
• ईश्वरकृष्ण कट्टर निरीश्वर-वादी था। उसने अपनी सांख्यकारिका की अंतिम उपसं- हारात्मक तीन आयाओं में कहा है, कि मूल विषय पर ७० आर्माएँ यो । परन्तु कोलमुक और