पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२०२

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कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार। १६३ इसका कारण यह है, कि सगुण ईश्वर, काल और स्वभाव, ये सब, व्यक्त होने के कारण प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले व्यक्त पदार्थों में ही शामिल है। पार, यदि ईयर को निर्गुण माने, तो सरकार्य-वादानुसार निर्गुण मूल तत्व से त्रिगुणात्मक प्रकृति कभी उत्पत्र नहीं हो सकती। इसलिये, उन्होंने यह निश्चित सिद्वान्त किया है कि प्रकृति और पुरुष को छोड़ कर इस सृष्टि का और कोई तीसरा मूल कारण नहीं है। इस प्रकार जब उन लोगों ने दो ही मूल तत्व निश्चित कर लिये तय हों ने अपने मत के अनुसार इस बात को भी सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों मूल तत्वों से सृष्टि कैसे उत्पन हुई है । ये कहते हैं, कि याप निर्गुण पुरुप कुल भी कर नहीं सकता, तथापि जय प्रकृति के साथ उसका संयोग होता है तय, जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के लिये दुध देती है या लोहचुंबक दोनों पास होने से लोहे में प्रामपंगा-शक्ति भाजाती है, उसी प्रकार भूल अध्यक्त प्रकृति अपने गुगों (सूक्ष्म और स्थूल) का व्यक्त फैलाव पुरुष के सामने फैलाने लगती ई (सां. फा. ५७) । यद्यपि पुरुप सचेतन और ज्ञाता है, तथापि विलसन के अनुवाद के साथ, गई में, पीयुत तुकाराम सात्या ने जो पतक मुद्रित की है, उसमें मूल विषय पर येवल ६९ आए हैं। मलिये गिल्सन साहब ने अपने गनुवाद में या सदेव प्रगट किया है कि ७० वी आर्या कोन सी है । परन्तु वा भार्या उनको नहीं मिली और उनकी शंका का समाधान भी नहीं हुआ । हगारा मत है फिया आयर्या वर्तमान ६१ वी भार्या को भागे होगः । कारण यह है कि ६१ पी आर्या पर गोदादानार्य का जो भाष्य है यह कुछ एका आर्या पर नहीं है किंतु दो माया पर है। और, यदि म मात्र के प्रतीक पदों को ले कर आर्या यनाई जाय तो वह इस प्रकार होगी:- कारणीपरभेके पते काल परे स्वभावं वा। प्रजाः कर्य नितुंगतो व्यकः कालः खभाय।। यह आर्या पिछले और अगले संदर्भ (अर्थ या भाष), से ठीक ठीका मिलती गी। इस आर्या में निरीधर मत का प्रतिपादन है इसलिये, जान पड़ता है कि किसी ने इमे, पछि से निकाल साला पोगा । परन्तु, इस आर्या का शोधन करनेवाला मनुष्य इसका भाष्य निकाल मलना भूल गया इमालये अप ग स भार्या का ठीक ठीक पता लगा सकते है और इसी से उस मनुष्य को धन्यवाद धो देना चाहिये । साभारोपानेपद के छठवें अध्याय के पहले मंत्र से प्रगट होता है पि, प्राचीन समय में, कुछ लोग स्वभाव और माल को, और वेदानी तो उसके भी आगे बढ़ कर ईश्वर को, जगा का मूल कारण मानते थे । यह मंत्र यह है:- खभावभेके पलयो पदन्ति कालं तधान्ये पंरिमुखमानाः । देवस्यैषा महिमा लोके येनेदं भाम्यते प्राचार ॥ परन्तु ईश्वरकृष्ण ने उपर्युक्त आयों को वर्तमान ६१ वा आर्या के बाद सिर्फ यह बतलाने का लिये ही रखा है, कि ये तीनों मल कारण (अर्थात रसभाव, काल और भर ) सांख्य वादिया को मान्य नहीं है। -