१७० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल । में न केवल क्षर-ग्रनर-विचार ही का समावेश होता है, किन्तु क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान और अध्यात्म विषयों का भी समावेश हो जाता है। भगवद्गीता के मतानुसार प्रकृति अपना खेल करने या सृष्टि का कार्य चलाने के लिये स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु उसे यह काम ईश्वर की इच्छा के अनुसार करना पड़ता है (गी. ६. १०)। परन्तु, पइले बतलाया जा चुका है कि, कपिलाचार्य ने प्रकृति को स्वतन्त्र माना है। सांस्यशास्त्र के अनुसार, प्रकृति का संसार प्रारंभ होने के लिये, 'पुरुप का संयोग' ही निमित्त कारण वस हो जाता है । इस विषय में प्रकृति और किसी की भी अपेक्षा नहीं करती । सांख्यों का यह कथन है कि, ज्योंही पुरुष और प्रकृति का संयोग होता है त्याही उसकी टकसाल जारी हो जाती है। जिस प्रकार वसन्त ऋतु में वृक्षों में नये पत्ते देख पड़ते और क्रमशः फूल और फल आने लगते हैं (मभा. शां. २३१. ७३, मनु, १.३०), उसी प्रकार प्रकृति की मूल साम्यावस्था नष्ट हो जाती है और उसके गुणों का विस्तार होने लगता है। इसके विरुद्ध वेदसंहिता, उपनिषद् और स्मृति ग्रंथों में प्रकृति को मूल नमान कर परब्रह्म को मूल माना है और परग्रह से सृष्टि की उत्पत्ति होने के विषय में मिन भिन्न वर्णन किये गये हैं :-जैसे "हिरण्यगर्भः समवर्तता भूतस्य जातः पतिरेक आसीत" -पहले हिरण्यगर्भ (ऋ१०. १२१,१), और इस हिरण्यगर्भ से अथवा सत्य से सय सृष्टि उत्पन्न हुई (. १०. ७२, १०. १८०), अथवा पहले पानी उत्पन्न हुआ (ऋ. १०.६२. ६ ते. घा.... ३.७, ऐ. १.१.१.२) और फिर उससे सृष्टि हुई। इस पानी में एक अंदा उत्पन्न हुआ और उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ, तथा ब्रह्मा से अथवा उस मूल भंदे से ही सारा जगत् उत्पन्न हुमा (मनु. १.८-१३, छां. ३. १६); अथवा वही ब्रह्मा (पुरुष) आधे हिस्से से स्त्री होगया (वृ. १. ४.३. मनु. १.३२) अथवा पानी उत्पन्न होने के पहले ही पुरुप या (कठ. ४.६); अथवा पहले परब्रह्म से तेज, पानी, और पृथ्वी (अन्न) यही तीन ताव उत्पन्न हुए और पश्चात उनके मिश्रण से सब पदार्य यने (छां.६.२-६) यद्यपि उक्त वर्णनों में बहुत भिन्नता है, तथापि वेदान्तसूत्रों (२.३.१-१५) में अंतिम निर्णय यह किया गया है, कि आत्मरूपी मूलबह से ही प्राकाश आदि पञ्चमहाभूत क्रमशः उत्पन्न हुए हैं (तै. उ. २. १) । प्रकृति, महत आदि तत्वों का भी उल्लेख छ (३.), मैत्रायणी (६.०), श्वेताश्वतर (५. १०६६.१६), आदि उपनिषदों में स्पष्ट रीति से किया गया है ! इससे देख पड़ेगा कि, यद्यपि वेदान्त मतवाले प्रकृति को स्वतंत्र न मानते हों, तथापि जय एफ वार शुद्ध ब्रह्म ही में मायात्मक प्रकृति रूप विकार दृग्गोचर होने लगता है तब, भाग सधि के उत्पत्ति-क्रम के सम्बन्ध में उनका और सांख्यमतवालों का अंत में मेल हो गया और, इसी कारण महा. भारत में कहा है कि "इतिहास, पुराण, अर्थशास्त्र आदि में जो कुछ ज्ञान भरा है वह सब सांग्थ्यों से प्राप्त हुआ है" (शां. ३०१, १०८, १०८)। उसका यह
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