आठवाँ प्रकरण। विश्व की रचना और संहार । गुणा गुणेषु जायन्ते तत्रैव निविशन्ति च 12 महाभारत, शांति. ३०५. २३ । इस यात का विवेचन हो चुका, फि फापित सांस्य के अनुसार संसार में जो दो स्वतन्त्र मूलताव-प्रकृति और पुरुप-हैं उनका स्वरूप क्या है, और लय इन दोनों का संयोग ही निमित्त कारगा हो जाता है तय पुरुप के सामने प्रकृति अपने गुणों का जाना कैसे फैलाया करती है, और उस जाले से हम को अपना घुट- कारा किस प्रकार कर लेना चाहिये । परन्तु अय तफ इस का स्पष्टीकरण नहीं किया गया कि, प्रकृति अपने जाले को (प्रथया संल, संसार या ज्ञानेन्धर महाराज के शब्दों में प्रकृति की टकसाल' को) किस शाम से पुरप के सामने फैलाया करती है और उसका लय किस प्रकार हुआ करता है। प्रकृति के इस व्यापार ही को 'विध की रचना धीर संहार' कहते हैं और इसी विषय का विवेचन प्रस्तुत प्रकरण में किया जायगा । सांस्य-मत के अनुसार प्रकृति ने इस जगत या सृष्टि को असंख्य पुरुषों के लाभ के लिये ही निर्माण किया है । 'दासबोध' में, श्री समर्थ रामदास स्वामी ने भी, प्रकृति से सारे प्रांड के निर्माण होने का यहुत अच्छा वर्णन किया है। उसी वगीन से विश्व की रचना और संधार' शब्द इस प्रकरण में लिये गये हैं। इसी प्रकार, भगवद्रीता के सातवें और पाठ अध्यायों में, मुख्यतः इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है । और, ग्यारहवें अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से जो यह प्रार्थना की है कि " भषाप्ययौ हि भूतानां श्रुती विस्तरशो मया" (गी. ११.२)- भूतों की उत्पत्ति और प्रलय (जो आपने) विस्तार पूर्वक (बसलाया. उसको ) मैंने सुना, अय मुझे अपना विश्वरूप प्रत्यक्ष दिखला कर कृतार्थ कीजिये-उससे यह यात स्पष्ट हो जाती है कि, विध की रचना और संहार क्षर-अक्षर-विचार ही का एक मुख्य भाग है । 'ज्ञान' वह है जिससे यह यात मालूम हो जाती है कि सृष्टि के अनेक (नाना) व्यक्त पदार्थों में एक ही अव्यक्त मूल द्रव्य है (गीता १८, २०); और 'विज्ञान' उसे कहते हैं जिससे यह माजूम हो कि एक ही मूलभूत अव्यक्त द्रव्य से भिन्न भिन्न भनेक पदार्थ किस प्रकार अलग अलग निर्मित हुए (गी. १३.३०); और इस • "गुणों से ही गुणों की उत्पत्ति होती है और उन्हीं में उनका लय हो जाता है। गी. र. २२.
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