१७२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कुछ पंडित यह मान कर, कि जड़ पदायों से ही बढ़ते वद्धते आत्मा और चतम्य की उत्पत्ति हुई, जहाद्वैत का प्रतिपादन करते हैं, और इसके विरुद्ध कान्ट सरीत अध्यात्मज्ञानियों का यह कथन है कि, हमें सृष्टि का जो ज्ञान होता है वह हमारी आत्मा के एकीकरण-व्यापार का फल है इसलिये आत्मा को एक स्वतंत्र तत्व मानना ही पड़ता है। क्योंकि यह कहना-किलो आत्मा बाह्य सृष्टि का ज्ञाता है वह उसी सृष्टि का एक भाग है अथवा उस सृष्टि ही से वह उत्पन्न हुआ है-तर्क- दृष्टि से ठीक वैसा ही असमंजस या ग्रामक प्रतीत होगा जैसे यह दकि, कि हम स्वयं अपने ही कंधे पर बैठ सकते हैं। यही कारण है कि सांज्यशास्त्र में प्रकृति और पुरुष ये दो स्वतंत्र तत्व माने गये हैं। सारांश यह है कि, आधिभौतिक सृष्टि- ज्ञान चाहे जितना बढ़ गया हो तयापि अय तक पश्चिमी देशों में बहुतेरे बड़े बड़े पंडित यही प्रतिपादन जिया करते हैं, कि सृष्टि के मूल तत्व कैस्वल्पका विवेचन मित्र पद्धति ही से किया जाना चाहिये । पल्नु, यदि केवल इतना ही विचार किया जाय, कि एक जड़ प्रकृति से आगे लय व्यक्त पदार्य किस क्रम से बने हैतो पाठकों को माजूम हो जायगा कि पश्चिमी उत्क्रांति-मत में और साल्यशास्त्र में वर्णित प्रकृति के कार्य-संबंधी तत्वों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्योंकि इस मुख्य सिद्धान्त से दोनों सहमत हैं कि अन्यक्क, सूक्ष्म और एक ही मूल प्रकृति से क्रमशः (सूक्ष्म और फ्यूल) विविध त्या व्यक सृष्टि निर्मित हुई है। परन्तु अव आधिभौतिक शास्त्रों के ज्ञान की खूब वृद्धि हो जाने के कारण, सांख्य वादियों के सत्व, रज, तम' इन तीन गुणों के बदले, आधुनिक सृष्टिशाज्ञों ने गति, दम्णवा और आकर्षण शक्ति को प्रधान गुण मान रखा है। यह यात सच है, कि 'सत्व, रंग, सम 'गुणों की न्यूनाधिनता के परिमाण की अपेक्षा, उप्णता अथवा आकर्षण- शक्ति की न्यूनाधिकताकी वात प्राधिौतिक शास्त्र की दृष्टि के सरलतापूर्वक समक में आ जाती है। तथापि, गुणों के विकास अथवा गुणोत्कर्ष का जो यह तत्व है, कि " गुणा गुणेषु वतन्ते । (गी. ३. २८), वह दोनों और समान ही है। सांख्य-शास्त्रज्ञों का कपन है कि जिस तरह मोड़दार पंखे को धीरे धीरे खोलते हैं उसी तरह सत्त्वज-तम की सान्यावस्या में रहनेवाली प्रकृति की वह जब धीरे धीरे खुलने लगती है, तब सब च्यक सृष्टि निर्मित होती है-इल कपन में और उत्क्रान्ति वाद में वस्तुतः कुद मैद नहीं है । तथापि, यह भेद तात्विक धर्म-दष्टि से ध्यान में रखने योग्य है कि, ईसाई धर्म के समान गुणोत्कर्ष-तत्व का अनादर न करते हुए, गीता में और अंशतः पनिषद् प्रादि वैदिक ग्रन्थों में भी, अद्वैत वेदान्त के साथ ही साय, विना किली विरोध के गुणोकप-वाइ स्वीकार किया गया है। • अब देखना चाहिये कि प्रकृति के विकास क्रम के विषय में सांख्य-शाखकारों का च्या कथन है। इस क्रम ही की गुणोकप अथवा गुणपरिणाम-वाद कहते हैं। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि, कोई काम प्रारंभ करने के पहले मनुष्य उसे अपनी बुद्धि से निश्चित कर लेता ई, अथवा पहले काम करने की बुद्धि या
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२११
दिखावट