विश्व की रचना और संहार । १७५ प्रहकार कि जिसके कारण पेड़, पत्थर, पानी, अथवा भित्र भिस मूल परमाणु एक ही प्रकृति से उत्पन होते हैं, ये दोनों एक ही जाति के हैं। भेद केवल इतना ही है कि पत्थर में चैतन्य न होने के कारण उसे 'ई' का ज्ञान नहीं होता और मुँह न होने के कारण ' मैं-तू' कह कर स्वाभिमानपूर्वक वह अपनी पृथक्ता किसी पर प्रगट नहीं कर सकता । सारांश यह कि, दूसरों से पृषक रहन का अर्थात् अभिमान या अंहकार का तत्व सब जगह समान ही है । इस अहंकार ही को तेजस, अभिमान, भूतादि और धातु भी कहते हैं। अहंकार, बुद्धि ही का एक भाग है इसलिये पहले जब तक बुद्धि न होगी तब तक अहंकार उत्पन्न हो ही नहीं सकता। अतएव सांख्यों ने यह निश्चित किया है, कि 'अहंकार' यह दूसरा, अर्थात् बुद्धि के बाद का, गुण है। अब यह बतलाने की बावश्यकता नहीं कि साश्चिक, राजस और तामस भेदों से बुद्धि के समान प्रकार के भी अनन्त प्रकार हो जाते हैं। इसी तरह उनके बाद के गुणों के भी, प्रत्येक के निघात अनन्त भेद है। अथवा यह कहिये कि व्यक्त सृष्टि में प्रत्येक वस्तु के, इसी प्रकार, अनन्त सात्विक, राजस और तामस भेद हुश्रा करते हैं। और, इसी सिद्धान्त को लक्ष्य करके, गीता में गुणत्रय-विभाग और श्रद्धात्रय-विभाग बतलाये गये हैं (गी. प्र. १४ और १७)। व्यवसायात्मिक बुद्धि और अहंकार, दोनों व्यक्त गुण, जय मूल साम्यावस्था की प्रकृति में उत्पन हो जाते हैं, तय प्रकृति की एकता भंग हो जाती है और उससे अनेक पदार्थ बनने लगते हैं। तथापि, उसकी सूक्ष्मता अब तक कायम रहती है। अर्थात, यह कहना अयुक्त न होगा कि, अंग नैयायिकों के सूक्ष्म परमाणुओं का भारम्भ होता है। क्योंकि, अहंकार उत्पन्न होने के पहले, प्रकृति अखादत और निरवयव थी। वस्तुतः देखने से तो यही प्रतीत होता है, कि निरी बुद्धि और निरा अहंकार केवल गुण हैं; अतएव, उपर्युक्त सिद्धान्तों से यह मतलब नहीं लेना चाहिये, कि वे (बुद्धि और अहंकार) प्रकृति के द्रव्य से पृथक् रहते हैं। वास्तव में बात यह है कि, जय मूल और अवयव-रहित एक ही प्रकृति में इन गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, तब उसी को विविध और अवयव सहित द्रव्यात्मक व्यक्त रूप प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब अहंकार से मूल प्रकृति में भिन्न भिन्न पदार्थ बनने की शक्ति आजाती है, तब धागे उसकी वृद्धि की दो शाखाएँ हो जाती है। एक, पेड़, मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की सृष्टि; और दूसरी,-निरिंद्रिय पदार्थों की सृष्टि । यहाँ इंद्रिय शब्द से केवल । 'इन्द्रियवान् प्राणियों की इंद्रियों की शक्ति' इतना ही अर्थ लेना चाहिये । इसका कारण यह है कि, सेंद्रिय प्राणियों की जड़ देह का समावेश जड़ यानी निरिन्द्रिय सृष्टि में होता है, और इन प्राणियों का आत्मा 'पुरुष' नामक अन्य वर्ग में शामिल किया जाता है। इसी लिये सांख्यशास्त्र में सेंद्रिय सृष्टि का विचार करते समय देह और आत्मा को छोड़ केवल इंद्रियों का ही विचार किया गया है। इस जगत में सौन्द्रिय और
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