पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१५

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१७६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । निरिद्रिय पदार्थों के अतिरिक किसी तीसरे पदार्थ का होना सम्मव नहीं, इसलिये कहने की भावश्यकता नहीं कि, महंकार से दो से अधिक शाखाएं निकश ही नहीं सकती। इनमें निरिन्द्रिय पदार्थों की अपेक्षा इन्द्रिय-शक्ति श्रेष्ठ है इसलिये इन्द्रिय सृष्टि को सात्त्विक (अर्थात् सम्वगुण के उत्कर्ष से होनेवाली) कहते हैं और निरिद्रिय सृष्टि को तामस (अर्थात् तमोगुण के उत्कर्ष से होनेवाली) कहत हैं। सारांश यह है कि, जब महकार अपनी शक्ति से भिन्न मिल पदार्थ उत्पन्न करने लगता है तय उसी में एक बार सतोगुण का उत्कर्ष हो कर एक ओर पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ और मन को मिला कर इन्द्रिय-सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इंद्रियाँ उत्पन्न होती है और दूसरी ओर, तमोगुण का उत्कर्ष हो कर उससे निरिन्द्रिय सृष्टि के मूलभूत पाँच तन्मात्रदम्य उत्पन्न होते हैं। परन्नु प्रकृति की सूक्ष्मता अव सक कायम रही है, इसलिये अहंकार से उत्पन्न होनेवाले ये सोलह तत्त्व भी सूक्ष्म ही रहते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप और रस की तन्मात्राएँ अर्थात् बिना मित्रण हुए प्रत्येक गुण के भिन्न भिन्न अति सूक्ष्म मूलस्वरूप-निरिंद्रिय-पष्टि के मूलतत्व है और मन सहित ग्यारह इन्द्रियों सेन्द्रिय-सृष्टि की चीज हैं । इस विषय की सांख्यशास्त्र की उपपत्ति विचार करने योग्य है कि निरिद्रिय-सृष्टि के मूलतत्व (तन्मात्र) पाँच ही क्यों और सन्द्रिय-सृष्टि के मुलतत्व ग्यारह ही क्यों मान जाते हैं। प्राचीन सृष्टि शास्त्रज्ञों ने सृष्टि के पदार्थों के तीन भेद-घन, द्रव और घायुरूपी-किये हैं। परन्तु सांख्य-शास्त्रकारों का वर्गीकरण इससे भिन्न है । उनका कथन है कि मनुष्य को सृष्टि फेसब पदार्थों का ज्ञान केवल पाँच ज्ञानेन्द्रियों से हुआ करता है। और, इन ज्ञानेंद्रियों की रचना कुछ ऐसी विलक्षण है, कि एक इंद्रिय को सिर्फ एक ही गुण का ज्ञान हुआ करता है । आँखों स सुगंध नहीं मालूम होती और न कान से दीखता ही है, त्वचा से मीठा-कडुबा नहीं समझ पड़ता और न जिदा से शब्दतान ही होता है। नाक से सफ़ेद और काले रंग का भेद भी नहीं माजूम होता । जब, इस प्रकार, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और उनके पाँच विषय-शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गंध- निश्चित हैं, तब यह प्रगट है कि सृष्टि के सय गुण भी पाँच से अधिक नहीं माने जासकते । क्योंकि यदि हम कल्पना से यह मान भी लें कि गुण पाँच से अधिक है, तो कहना नहीं होगा कि उनको जानने के लिये हमारे पास कोई साधन

  • मझेप में यही अर्थ अंग्रेजी भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है:-

The Primeval matter (Prakriti) was at first homogeneous. It resolved (Buddhi) to unfold itself, and by the Principle of dif- Serentiation(Ahamkara) became heterogeneous. It then branched off into two seotions-one organic (Sendriya), and the other in- organic ( Nirindriy). There are eleven elements of the organic and five of the inorganio creation.Purusho or the observer is dif- ferent from all these and falls under none of the above categories.