पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१९

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१८० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ही यतलाया जा चुका है कि, वेदान्ती लोक प्रकृति और पुरुष को स्वयम्भू और स्वतन्त्र नहीं मानते, जैसा कि सांख्य-मतानुयायी मानते हैं किन्तु उनका कथन है कि दोनों (प्रकृति और पुरुष) एक ही परमेश्वर की विभूतियाँ हैं । सांस्य और वेदान्त के उक्त भेदों को छोड़ कर शेष सृष्टयुत्पत्ति-क्रम दोनों पक्षों को प्राय है। उदाहरणार्थ, महाभारत में अनुगीता में ब्रह्मवृक्ष' प्रयया 'ग्रह्मवन'का जो दो बार वर्णन किया गया है (मभा. भश्व. ३५. २०-२३और ५७. १२-१५), वह सांख्यतत्वों के अनुसार ही है- अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कंधमयो महान् । महाहंकारविटप: इंद्रियान्तरकोटरः ॥ महाभूतविशाखश्च विशेषप्रतिशासवान् । सदापर्णः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः ।। आजीन्यः सर्वभूतानां ब्रहावृक्षः सनातनः । एनं छित्वा च भित्त्वा च तत्वज्ञानासिना बुधः ॥ हित्वा सद्गमयान् पाशान् मृत्युजन्मजरोदयान् । निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः ।। अर्थात् "अव्यक्त (प्रकृति) जिसका चीज है, पुद्धि (महान ) जिसका तना या पॉड है, आईकार जिसका प्रधान पटव है, मन और दस इन्द्रियाँ जिसकी अन्तर्गत खोखली या खाँडर हैं, (सूक्ष्म) महाभूत (पंच तन्मात्राएं) जिसकी बड़ी बड़ी शाखाएँ हैं, और विशेष प्रांत् स्यून महाभूत जिसकी छोटी छोटी टहनियाँ हैं, इसी प्रकार सदा पत्र, पुप्प, और शुभाशुभ फल धारण करने वाला, समस्त प्राणिमात्र के लिये आधारभूत, यह सनातन वृहद् ब्रह्मवृत है। ज्ञानी पुरुष को चाहिये, कि वह उसे तावज्ञानरूपी तलवार से काट कर एक टूक कर ढालेजन्म, जरा और मृत्यु उत्पन्न करनेवाले संगमय पाशों को नष्ट करे और ममत्वत्रुद्धि तथा अहंकार का त्याग कर दे, तब वह नि:संशय मुक होगा।" संक्षेप में, यही ब्रह्मवृक्ष प्रकृति अथवा माया का खेल, 'जाला' या 'पसारा' है। अत्यंत प्राचीन काल ही से-ऋग्वेदकाल ही से-इसे 'वृक्ष' कहने की रीति पड़ गई ई और उपनिपदों में भी उसको 'सनातन अश्वत्यवृद्ध कहा है (कठ, ६.१)। परन्तु वेदों में इसका सिर्फ यही वर्णन किया गया है कि उस वृक्ष का मूल (परब्रह्म ) ऊपर है और शाखाएँ (दृश्य सृष्टि का फैलाव ) नीचे हैं। इस वैदिक वर्णन को और सांख्या के तत्वों को मिला कर गीता में अश्वत्य वृत का वर्णन किया गया है। इसका स्पष्टीकरण हमने गीता के १५. १-२ श्लोकों की अपनी टीका में कर दिया है। उपर बतलाये गये पचीस तावों का वर्गीकरण सांख्य और वेदान्ती मित्र मिन्न रीति से किया करते हैं, अतएव यहाँ पर उस वर्गीकरण के विषय में कुछ "