. विश्व की रचना और संहार। १८१ लिखना चाहिये । सांख्यों का यह कथन है कि इन पचीस तत्वों के चार वर्ग होते हैं अर्थात् मूलप्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकृति और न-प्रकृति न-विकृति । (१) प्रकृति-तत्त्व किसी दूसरे से उत्पन्न नहीं हुआ है, अतएव उसे मूलप्रकृति ' कहते हैं। (२) मूलप्रकृति से आगे यढ़ने पर जब हम दूसरी सीढ़ी पर आते हैं तब 'महान् ' तव का पता लगता है । यह महान तत्व प्रकृति से उत्पन्न हुआ है, इसलिये यह प्रकृति की विकृति या विकार ' है और इसके बाद महान् तव से अहकार निकला है अतएव ' महात् ' प्रकार की प्रकृति अथवा मूल है। इस प्रकार महान् अथवा बुद्धि एक अोर से अईकार की प्रकृति या मूल है और, दूसरी ओर से, वह मूलप्रकृति की विकृति अथवा विकार है । इसी लिये सांख्यों ने उसे प्रकृति-विकृति नामक वर्ग में रखा; और इसी न्याय के अनुसार अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राओं का समावेश भी प्रकृति-विकृति 'वर्ग ही में किया जाता है। जो तत्त्व अथवा गुण स्वयं दूसरे से उत्पन (विकृति ) हो और आगे वही स्वयं अन्य तत्वों का मूलभूत (प्रकृति) हो जावे, उसे 'प्रकृति-विकृति' कहते हैं। इस वर्ग के सात तत्व ये है:-महान, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ। (३) परन्तु पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कमद्रियाँ, मन और स्यूल पञ्चमहाभूत, इन सोलह तत्वों से फिर और अन्य तत्वों की उत्पत्ति नहीं हुई। किन्तु ये स्वयं दूसरे तत्वों से प्रादुर्भूत हुए हैं। अतएव, इन सोलह तत्वों को प्रकृति-विकृति' न कह कर केवल विकृति ' अथवा 'विकार' कहते हैं। (४) पुरुष' न प्रकृति है और न विकृति वह स्वतंत्र और उदासीन द्रष्टा है । ईश्वरकृष्ण ने इस प्रकार वर्गीकरया करके फिर उसका स्पष्टीकरण यों किया है- मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ अर्थात् " यह मूलप्रकृति अविकृति है अर्थात् किसी का भी विकार नहीं है। महदादि सात (अर्यात महत, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ) तत्व प्रकृति-विकृति हैं। और सन सहित ग्यारह इंद्रियाँ तथा स्यूल पञ्चमहाभूत मिलाकर सोलह तत्त्वों को केवल विकृति अथवा विकार कहते हैं। पुरुप, न प्रकृति है न विकृति " (सा. का.३) आगे इन्हीं पचीस तावों के और तीन भेद किये गये हैं-अन्यक्त, व्यक्त और ज्ञ। इनमें से केवल एक मूलप्रकृति ही अव्यक्त है, प्रकृति से उत्पन हुए तेईस ताव व्यक्त हैं, और पुरुष ज्ञ है। ये हुए सांल्यों के वर्गीकरण के भेद । पुराण, स्मृति, महाभारत आदि वैदिकमार्गीय ग्रंथों में प्रायः इन्हीं पचीस तत्वों का उल्लेख पाया जाता है (मैन्यु. ६. १०. मनु. १. १४, १५ देखो)। परन्तु, उपनिषदों में वर्णन किया गया है कि ये सब तत्व परब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं और वहीं इनका विशेष विवेचन या वर्गीकरण भी नहीं किया गया है। उपनिषदों के बाद जो ग्रंथ हुए हैं उनमें इनका वर्गीकरण किया हुआ देख पड़ता है। परन्तु वह, उपयुक्त सांख्मों के वर्गीकरण से मिन है। कुल तत्व पचीस हैं। इनमें से सोलह तब
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