पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२२७

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१८८ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । प्राप्त हो जाती है, कि वह जन्म-मरण के आवागमन से कभी छूट ही नहीं सकता। इसलिये, यह सिद्ध होता है कि, यदि विना ज्ञान प्राप्त किये कोई मनुष्य मर जाय, तो भी आने नया जन्म प्राप्त करा देने के लिये उसने आत्मा से प्रकृति का संबंध अवश्य रहना ही चाहिये । मृत्यु के बाद यूल देह का नाश हो जाया करता है इसलिये यह प्रगट है कि, अव क सम्बन्ध स्यूल महाभूतात्मक प्रकृति के साथ नहीं रह सकता । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति केवल स्यूल पंच- महाभूतों ही से बनी है। प्रकृति से कुल तेईस तत्व उत्पन्न होते हैं, और, स्यूल पंचमहाभूत, उन तेईस तच्चों में से, अन्तिम पाँच हैं । इन अन्तिम पाँच तत्त्वों (स्यूल पंचमहाभूतों) को तेईस तत्वों में से अलग करने पर ८ तव शेष रहते हैं। अतएव, अव यह कहना चाहिये कि, जो पुरुष बिना ज्ञान प्रात किये ही मर जाता है, वह यद्यपि पंचमहाभूतात्मक स्यूल शरीर से, अर्थात् अन्तिम पाँच तत्वों से, छट जाता है, तथापि इस प्रकार की नृत्यु से प्रकृति के अन्य + तत्त्वों के साथ उसका सम्बन्ध कभी छूट नहीं सकता। वे अठारह तत्त्व ये हैं:-महान् (बुद्धि), अहं- कार, मन, इस इन्द्रियाँ और पाँच तन्मात्राएँ (इस प्रकरण में दिया गया ब्रह्माण्ड का वंशन, पृष्ट १६ देखिये)। ये सब तत्त्व सूक्ष्म है। अतएव इन तत्वों के साय पुरुष का संयोग स्थिर हो कर जो शरीर बनता है उसे स्थूल-शरीर के विस्व सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर कहते हैं (सां. का. ४०)। जब कोई मनुष्य दिना ज्ञान प्राप्त किये ही भर जाता है, तब मृत्यु के समय उसके आत्मा के साथ ही प्रकृति के उक्त तत्वों से बना हुआ यह लिंग-शरीर मी स्थूल देह से बाहर हो जाता है और जब तक उस पुरुष को ज्ञान की प्राप्ति हो नहीं जाती तब तक, उस लिंग-शरीर ही के कारण उसको नये नये जन्म लेने पड़ते हैं। इस पर कुछ लोगों का यह प्रश्न है कि, मनुष्य की मृत्यु के बाद जीव के साथ साथ इस जड़ देह में से, वुद्धि, अहंकार, मन और दस इन्द्रियों के च्यापार भी, नष्ट होते हुए हम प्रत्यक्ष में देख पड़ते हैं, इस कारण लिंग- शरीर में इन वेरह तत्वों का समावेश किया जाना तो उचित है, परन्तु इन तेरह तत्त्वों के साथ पाँच सूक्ष्म तन्मात्राओं का भी समावेश लिंगशरीर में क्यों किया जाना चाहिये ? इस पर सांख्या का स्त्तर यह है कि ये तेरह तत्व-निती बुद्धि, निरा अहंकार, मन और दल इन्द्रियाँ-प्रकृति के केवल गुण हैं, और, जिस तरह छाया को किसी न किसी पदार्थ का, तथा चित्र को दीवार, कागज़ आदि का, आश्रय आवश्यक है, उसी तरह इन गुणात्मक तेरह तत्वों को भी एकत्र रहने के लिये किसी द्रव्य के आनय की आवश्यकता होती है। अव,आत्मा (पुरुष) स्वयं निर्गुण और अकता है इसलिये वह स्वयं किसी भी गुण का आश्रय हो नहीं सकता। मनुष्य की जीवितावस्था में उसके शरीर के स्थूल पंचमहाभूत ही इन तेरह तत्वों के आश्रय-त्यान दुआ करते हैं । परन्तु, मृत्यु के बाद अर्थात् स्यूल शरीर के नष्ट हो जाने पर, स्यूल पंचमहाभूतों का यह आधार छुट जाता है । तब, !