पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३०

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विश्व की रचना और संहार । को, इस जन्म में किये हुए पाप-पुण्य का फल भोगने के लिये, पञ्चतन्मानात्मक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है । गीता के “ वायुगंधानिवाशयात् " इस दृष्टान्त से फेवल इतना ही सिद्ध होता है कि, यह शरीर सूक्ष्म है परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता कि उसका आकार कितना बड़ा है । महाभारत के सावित्री-उपाख्यान में यह वर्णन पाया जाता है कि, सत्ययान के (स्यूल) शरीर में से अंगूठे के यराबर एक पुरुष को यमराज ने बाहर निकाला-"अंगुटमानं पुरुपं निश्चकर्ष यमो बलात्" (मभा. वन. २६७. १६): इससे प्रतीत होता है कि, एष्टान्त के लिये ही क्यों न हो, लिंग-शरीर अंगूठे के से प्राकार का माना जाता था। इस बात का विवेचन हो चुका कि, यधपि लिंग-शरीर हमारे नेत्रों को गोचर नहीं है तथापि उसका अस्तित्य किन अनुमानों से सिद्ध हो सकता है, और उस शरीर के घटकावयव कौन कौन से हैं। परन्तु, केवल यह कह देगा ही यथेष्ट प्रतीत नहीं होता कि, प्रकृति और पाँच स्यूल महाभूतों के अतिरिक्त अठारह तत्वों के समुच्चय से लिंग-शरीर निर्माण होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि, जहाँ जहाँ लिंग शरीर रहेगा वहाँ वही इन अठारह तत्त्वों का समुच्चय, अपने अपने गुण-धर्म के अनुसार, माता-पिता के प्यूल शरीर में से तथा भागे ल्यूल-सृष्टि के अन्न से, इस्त. पाद आदि प्यूल अवयव या स्यूल इन्द्रियाँ उत्पन करेगा, अथवा उनका पोपण करेगा। परन्तु अब यह बतलाना चाहिये कि, अठारह तत्वों के समुच्चय से बना हुआ लिंग-शरीर पशु, पक्षी, मनुष्य आदि भिन्न भिन्न देह क्यों उत्पन्न करता है। सजीव सृष्टि के सचेतन तत्व को सांस्य-वादी 'पुरुष' कहते हैं। और, सांख्य-मतानुसार ये पुरुष चाहे असंख्य भी हो तथापि प्रत्येक पुरुष स्वभा- वतः उदासीन तथा प्रकता है, इसलिये पशु-पक्षी अादि प्राणियों के भिन्न भिन्न शरीर उत्पन्न करने का करीत्व पुरुप के हिस्से में नहीं पा सकता । वेदान्त- शास्त्र में कहा है कि, पाप-पुण्य आदि कर्मों के परिणाम से ये भेद उत्पन्न हुशा करते हैं। इस फर्म-विपाक का विवेचन मागे चल कर किया जायगा । सांख्यशाला के अनुसार कर्म को, पुरुप और प्रकृति से भिस, तीसरा तत्व नहीं मान सकते; और चाव कि पुरुष उदासीन ही है तब कहना पड़ता है कि कर्म, प्रकृति के सत्व- रज-तमोगुणों का ही, विकार है । लिंग-शरीर में जिन अठारह तत्वों का समुच्चय है उनमें से युद्धितत्व प्रधान है। इसका कारण यह है कि, बुद्धि ही से आगे अहंकार आदि सत्रह तत्व उत्पन्न होते हैं । अर्थात, जिसे चेदान्त में कर्म कहते हैं उसी को सांख्यशास्त्र में, सत्व-रज-तम गुणों के न्यूनाधिक परिमाण से उत्पन्न होनेवाला, बुद्धि का व्यापार, धर्म या विकार कहते हैं। बुद्धि के इस धर्म का नाम 'भाव' है। साव-रज-तम-गुणों के तारतम्य से ये 'भाव' कई प्रकार के होजाते हैं। जिस प्रकार फूल में सुगंध तथा कपड़े में रंग लिपटा रहता है, उसी प्रकार लिंग-शरीर में ये भाव भी लिपटे रहते हैं (सां. का. ४०)। इन भावों के अनुसार, अथवा वेदान्त-परिभाषा से कर्म के अनुसार, लिंग-शरीर नये नये