पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३१

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१६२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल । जन्म लिया करता है और जन्म लेते समय, माता-पिताओं के शरीरों में से जिन द्रव्यों को वह आकर्पित किया करता है, उन द्रव्यों में भी दूसरे भाव आ जाया करते हैं । 'देवयोनि, मनुष्ययोनि, पशुयोनि तथा वृक्षयोनि' ये सब भेद इन भावों की समुच्चयता के ही परिणाम हैं (सां. का. ४३-५५)। इन सब भावों में सात्त्विक गुण का उत्कर्ष होने से जब मनुष्य को ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है और उसके कारण प्रकृति और पुरुष की भिन्नता समझ में आने लगती है, तव मनुष्य अपने मूलस्वरूप अर्थात् कैवल्य पद को पहुँच जाता है और तब लिंग-शरीर छूट जाता है एवं मनुष्य के दुःखों का पूर्णतया निवारण हो जाता है। परन्तु, प्रकृति और पुरुष की मिझता का ज्ञान न होते हुए, यदि केवल सात्विक गुण ही का उत्कर्ष हो, तो लिंग-शरीर देवयोनि में अर्थात् स्वर्ग में जन्म लेता है। रजोगुण की प्रबलता हो तो मनुष्ययोनि में अर्थात् पृथ्वी पर पैदा होता है; और, तमोगुण की अधिकता हो जाने से उसे तिर्यक्योनि में प्रवेश करना पड़ता है (गी. १४. १८)।" गुणा गुणेषु जायन्ते " इस तत्व के ही आधार पर.सांख्यशास्त्र में वर्णन किया गया है कि, मानवयोनि में जन्म होने के बाद रेत-विन्दु से क्रमानुसार कलल, घुबुद, मांस, पेशी और भिन्न भिन्न स्थूल इन्द्रियाँ कैसे बनती जाती हैं (सां. का.४३; ममा. शां. ३२०)। गर्भोपनिषद का वर्णन प्रायः सांख्यशास्त्र के उक्त वर्णन के समान ही है । उपर्युक विवेचन से यह बात मालूम हो जायगी कि, सांख्यशास्त्र में 'भाव' शब्द का जो पारिभाषिक अर्थ बतलाया गया है वह यद्यपि वेदान्तग्रन्थों में विवक्षित नहीं है, तथापि भगवद्गीता में (१०. ४, ५, ७. १२) " बुद्धिज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः " इत्यादि गुणों को (इसके आगे के श्लोक में)जो 'भाव' नाम दिया गया है वह प्रायः सांख्यशास्त्र की परिभाषा को सोच कर ही दिया गया होगा। इस प्रकार, सांख्यशास्त्र के अनुसार मूल अव्यक्त प्रकृति से अथवा वेदान्त के अनुसार मूल सदूपी परबल से, सृष्टि के सब सजीव और निर्जीव व्यक्त पदार्थ क्रमशः उत्पन्न हुए; और जब सृष्टि के संहार का समय आ पहुँचता है तब सृष्टि- रचना का जो गुण-परिणाम-क्रम ऊपर बतलाया गया है, ठीक उसके विरूद क्रम से, सब व्यक पदार्य अव्यक्त प्रकृति में अथवा मूल ब्रह्म में लीन होजाते हैं । यह सिद्धान्त सांख्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों को मान्य है (वे.सू. २.३.१४ मभा. शां. २३२)। उदाहरणार्थ, पंचमहाभूता मैसे पृथ्वी का लय पानीम, पानीका अग्नि में, अग्नि का वायु में,वायु का आकाश में, आकाश का तन्मात्राओं में,तन्मात्राओं का अइंकार में, अइंकार कावुद्धि में, और बुद्धि यामहान् कालय प्रकृति में हो जाता है, तथा वेदान्त के अनुसार प्रकृति का लय मूल ब्रह्म में हो जाता है। सांस्य-कारिका में किसी स्थान पर यह नहीं बतलाया गया है कि, सृष्टि की उत्पत्ति या रचना हो जाने पर उसका लय तथा संहार.होने तक वीच में कितना समय लग जाता है । तथापि, ऐसा प्रतीत होता है कि, मनुसंहिता (१.६६-७३), भगवद्गीता (२. १७), तथा महाभारत साँचा:गलत