विश्व की रचना और संहार । १३५ प्रम" और भगवानू ने यह भी कहा है कि, हमारे बीज से इस प्रकृति में त्रिगुणों के द्वारा अनेक मूर्तियों उत्पश होती है । अन्य स्थानों में ऐसा वर्णन है कि ब्रह्मदेव से प्रारंभ में दक्ष प्रभृति सात मानस पुत्र अथवा मनु उत्पन्न हुए और उन्होंने आगे सब चर-अचर सृष्टि का निर्माण किया (मभा. भा. ६५-६७ मभा. शां. २०७४ मनु. १. ३४-६३); और इसी का गीता में भी एक पार उल्लेख किया गया है (गी. १०.६)। परन्तु, वेदान्त-अन्य यह प्रतिपादन करते है कि इन सव भिन्न भित वर्णनों में ग्रह- देव को ही प्रकृति मान लेने से, उपर्युक्त ताविक तृष्टयुत्पत्ति-प्रम से मेल हो जाता है और, यही न्याय अन्य स्थानों में भी उपयोगी हो सकता है। उदाहरणार्थ, शैव तथा पाशुपत दर्शनों में शिव को निमित्त-कारण मान कर यह कहते हैं कि उसी से कार्य कारणादि पाँच पदार्थ उत्पन हुए; और नारायणीय या भागवत- धर्म में वासुदेव को प्रधान मान कर यह वर्णन किया है कि, पहले वासुदेव से संकर्पण (जीव) हुया, संकर्षण से प्रधुन्न (मन) और प्रद्युम्न से अनिन्द (अहंकार) उत्पन हुआ। परन्तु वेदान्तशास्त्र के अनुसार जीव प्रत्येक समय नये सिरे से उत्पन नहीं होता, वह नित्य और सनातन परमेश्वर का नित्य-अतएव अनादि-अंश है। इसलिये वेदान्तसूत्र के दूसरे अध्याय के दूसरे पाद (सू. २. २. ४२-४५) में, भागवतधर्म में वर्णित जीव के उत्पत्तिविषयक उपयुक्त मत का खंडन करके, कहा है कि वह मत वेद-विरुद्ध अतएव त्याज्य है। गीता (१३. ४; १५. ७) में वेदान्त- सूत्रों के इसी सिद्धान्त का अनुवाद किया गया है। इसी प्रकार, सांख्य-वादी प्रकृति और पुरुष दोनों को स्वतंत्र ताव मानते हैं। परन्तु इस द्वैत को स्वीकार न कर वेदा- न्तियों ने यह सिद्धान्त किया है कि, प्रकृति और पुरुष दोनों तत्व एक ही नित्य और निर्गुण परमात्मा की विभूतिया है। यही सिद्धान्त भगवद्गीता को भी प्राय है (गी. ६. १०)। परन्तु इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन अगले प्रकरण में किया जायगा । यहाँ पर केवल इतना ही बतलाना है कि, भागरत या नारायणीय-धर्म में वर्णित वासुदेव-भक्ति का और प्रवृत्तिप्रधान धर्म का ताप यद्यपि भगवद्वीता को मान्य है तथापि गीता भागवतधर्म की इस कल्पना से सहमत नहीं है, कि पहले वासुदेव से संकर्षण या जीव उत्पन हुआ और उससे आगे प्रद्युम्न (मन) तथा प्रद्युम्न से अनिरुद्ध (अहंकार) का प्रादुर्भाव हुभा । संकर्पण, प्रद्युम्न या अनिरुद्ध का नाम तक गीता में नहीं पाया जाता । पाचरात्र में बतलाये हुए भागवतधर्म में तथा गीता- प्रतिपादित भागवतधर्म में यही तो महत्व का भेद है। इस बात का उल्लेख यहाँ जान बूझ कर किया गया है क्योंकि केवल इतने ही से, कि " भगवद्गीता में भागवतधर्म पतलाया गया है," कोई यह न समझ ले कि सृष्टयुत्पत्ति-धाम-विषयक अथवा जीव-परमेश्वर-स्वरूप-विषयक भागवत आदि भक्ति संप्रदाय के मत भी गीता को मान्य हैं। अब इस बात का विचार किया जायगा कि, सांख्य-शास्त्रोक्त प्रकृति और पुरुप के भी परे सय न्यसायक तथा क्षराक्षर जगत् के मूल में कोई दूसरा तत्व है या नहीं। इसी को अध्यात्म या वेदान्त कहते हैं।
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