पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३५

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नयाँ प्रकरण । अध्यात्म । परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यतोऽव्यक्तात् सनातनः । यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।* गीता.८.२०॥ पिछले दो प्रकरणों का सारांश यही है, कि क्षेत्र क्षेत्रज्ञ-विचार में जिसे क्षेत्र कहते हैं उसी को सांख्य-शास्त्र में पुरुष कहते हैं। सव चर-अक्षर या चर-अचर सृष्टि के संहार और उत्पत्ति का विचार करने पर सांख्य-मत के अनुसार अन्त न केवल प्रकृति और पुरुप ये ही दो स्वतंत्र तया अनादि मूलतत्त्र रह जाते हैं और पुरुष को अपने सारे शॉ नी निवृत्ति कर लेने तथा मोक्षानन्द प्रात कर लेने के लिये प्रकृति से अपना मित्रत्व अर्थात् कैवल्य जान कर त्रिगुणातीत झाना चाहिये । प्रकृति और पुरुप का संयोग होने पर, प्रकृति अपना खेल पुरुष के सामने किस प्रकार खेला करती है इस विषय का क्रम अवांचीन सृष्टि-शास्त्रवेचाओं ने सांख्य-शान से कुछ निराला बतलाया है और संभव है, कि आगे आधिमा- तिक शास्त्रों की ज्यों ज्यों उन्नति होगी, त्यो त्यों इस क्रम में और भी सुधार होते जावेंगे। जो हो; इस मूल सिद्धान्त में कभी कोई फर्क नहीं पड़ सकता, कि केवल एक अव्यक्त प्रकृति से ही सारे व्यक पदार्य गुणोत्कर्ष के अनुसार क्रम ऋम से निर्मित होते गये हैं। परन्तु वेदान्त केसरी इस विषय को अपना नहीं ममता-यह अन्य शास्त्रों का विषय है, इसलिये वह इस विषय पर वाद- विवाद भी नहीं करता । वह इन लव शास्त्रों से आगे बढ़ कर यह बतलाने के लिये प्रवृत्त हुआ है, कि पिड-ब्रह्मांड की भी जड़ में कौन सा श्रेष्ठ तत्व है और मनुष्य यस श्रेष्ट तत्त्व में कैसे मिल जा सकता है अर्थात तप कैसे हो सकता है। चेदान्त-सरी अपने इस विषय-प्रदेश में और किसी शास्त्र की गर्जना नहीं होने देता। सिंह के नागे गीदढ़ की भाँति, वेदान्त के सामने सारे शास्त्र चुप हो जाते हैं। अतएव किसी पुराने सुभाषितकार ने वैदान्त का ययाय वर्णन यों किया है:- तावत् गर्वन्ति शास्त्राणि जंबुका विपिने यथा । न गर्नति महाशक्तिः यावद्वेदान्तकेसरी ॥ सांख्यशास्त्र का कथन है, कि क्षेत्र और क्षेत्र का विचार करने पर निप्पन्न होनेवाला • वो दूतरा अव्यक्त पदार्थ स ( सांख्य ) अध्यक्ष मे मी श्रेष्ठ दया सनातन है, और तंत्र प्राणियों का नाश हो जाने पर भी जिनका नाश नहीं होता," वही अंतिन गति है।