गीतारहस्य मयवा कर्मयोगशास्त्र। सांख्य-वादी जिस न्याय का अवलम्बन कर ' द्रष्टा पुरुष' और 'दृश्य सृष्टि' में भेद वतलाते हैं उसी न्याय का उपयोग करते हुए और आगे क्यों न चले? श्य सृष्टि की कोई कितनी ही सूक्ष्मता से परीक्षा करे और यह जान ले कि जिन नेत्रों से हम पदार्थों को देखते-परखते हैं उनके मजातन्तुन्नों में अमुक अमुक गुण-धर्म है तथापि इन सव वातों को जाननेवाला या 'टा मिन रह ही जाता है । क्या इस 'दृष्टा' के विषय में, जो दृश्य दृष्टि से भिन्न है, विचार करने के लिये कोई साधन या उपाय नहीं है ? और यह जानने के लिये भी कोई मार्ग है या नहीं, कि इस दृश्य सृष्टि का सच्चा स्वरूप जैसा हम अपनी इन्द्रियों से देखते हैं वैसा ही है, या उससे भिन्न है? सांख्य-वादी कहते हैं कि, इन प्रक्षों का निर्णय होना असम्भव है अतएव यह मान लेना पड़ता है, कि प्रकृति और पुल्प दोनों तत्व मूल ही में स्वतंत्र और मिल हैं। यदि केवल आधिभौतिक शास्त्रों की प्रणाली से विचार कर देखें तो सांख्य-वादियों का उक्त मत अनुचित नहीं कहा जा सकता । कारण यह है, कि सृष्टि के अन्य पदार्थों को जैसे हम अपनी इन्द्रियों से देख-भाल कर उनके गुण-धर्मों का विचार करते हैं, वैसे यह द्रष्टा पुरुष' या देखनेवाला अर्थात् जिसे वेदान्त में 'आत्मा' कहा है वह द्रष्टा की, अर्थात् अपनी ही, इन्द्रियों को मिन्न रूप में कभी गोचर नहीं हो सकता । और जिल पनार्थ का इस प्रकार इन्द्रिय- गोचर होना असम्भव है यानी जो वतु इन्द्रियातीत है उसकी परीक्षा मानवी इन्द्रियों से कैसे होसकती है ? उस आत्मा का वर्णन भगवान् ने गीता (२. २३) में इस प्रकार किया है:- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोपयति मात्त: अर्यात, आत्मा कोई ऐसा पदार्थ नहीं, कि चदि हम सृष्टि के अन्यान्य पदायों के समान टल पर तेजाब आदि द्रव पदार्थ डालें तो उसका व रूप हो जाय, अथवा प्रयोगशाला के पैने शस्त्रों से काट-छाँट कर उसका अान्तरिक्त स्वरूप देख लें, या आग पर घर देने से उसका धुआँ हो जाय, अथवा हवा में रखने से वह सूख जाय ! सारांश, सृष्टि के पदार्थों की परीक्षा करने के, आधिभौतिक शास्त्रवेत्तात्रों ने जितने कुछ उपाय ढूंढ़े हैं, वे लव यहाँ निष्फल हो जाते हैं। तव सहज ही प्रश्न उठता है कि फिर 'आत्मा' की परीक्षा हो कैसे ? प्रश्न है तो विकट पर विचार करने से कुछ कठिनाई देख नहीं पड़ती। भला, सांख्य-वादियों ने भी 'पुरुप' को निर्गुण और स्वतंत्र कैसे जाना ? केवल अपने अन्तःकरण के अनुभव से ही तो जाना है न? फिर उसी रीति का उपयोग प्रकृति और पुरुष के सच्चे स्वरूप का निर्णय करने के लिये क्यों न किया जावे ? आधिभौतिकशास्त्र और अध्यात्म-शास्त्र में जो बड़ा भारी भेद, वह यही है। आधिभौतिकशास्त्रों के विषय इन्द्रिय-गोचर होते हैं और अध्यात्मशास्त्र का विषय इन्द्रियातीत अर्थात् केवल स्वसंवेद्य है, यानी अपने आप ही जानने योग्य है। कोई यह कहे कि यदि 'आत्मा' स्वसंवेद्य है तो प्रत्येक .
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