पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३६

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अध्यात्म। 6 द्रष्टा ' अर्थात् पुरुष या प्रात्मा, और घर-अक्षर सृष्टि का विचार करने पर निप्पन होनेवाली सत्व-रज-तम-गुणमयी अव्यक्त प्रकृति, ये दोनों स्वतंत्र हैं और इस प्रकार जगत् के मूलतत्य को द्विधा मानना आवश्यक है। परन्तु वेदान्त इसके आगे जा कर या कहता है, कि सांग्य के पुरुष 'निर्गुण भले ही हों, तो भी चे असंख्य हैं। इसलिये यह मान लेना उचित नहीं, कि इन असंख्य पुरुषों का लाभ जिस बात में हो उसे जान कर प्रत्येक पुरुष के साथ तदनुसार वर्ताव करने का सामर्थ्य प्रकृति में है। ऐसा मानने की अपेक्षा साधिक तायशान की दृष्टि से तो यही अधिक युक्ति-संगत होगा, कि उस एकीकरण की ज्ञान-निया का अन्त तक निरपवाद उपयोग किया जावे और प्रकृति तथा असंख्य पुरषों पर एक ही परम तत्व में अविभक्त रूप से समावेश किया जाये जो "अविभक्तं विभक्तपु" के अनुसार नीचे से ऊपर तक की श्रेणियों में देख पड़ती है और जिसकी सहायता से ही सृष्टि के अनेक व्यक्त पदार्थों का एक अव्यक्त प्रकृति में समावेश किया जाता है (गी. १८.२०-२२)। भिन्नता का भास होना अइंकार का परिणाम है और पुरुप यदि निर्गुण है, तो असंख्य पुरुषों के अलग अलग रहने का गुण उसमें रह नहीं सकता। अथवा, यह कहना पड़ता है, कि वस्तुतः पुरुप असंख्य नहीं है, केवल प्रकृति की अईकार- गुणरूपी उपाधि से उनमें अनेकता देख पड़ती है। दूसरा एक प्रश्न यह उठता है, कि स्वतंत्र प्रकृति का स्वतंत्र पुरुष के साथ जो संयोग हुआ है, वह सत्य है या मिथ्या ? यदि सत्य मानें तो यह संयोग कभी भी छूट नहीं सकता, अतएव सांख्य- मतानुसार आत्मा को मुक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। यदि मिथ्या माने तो यह सिद्धान्त ही निर्मूल या निराधार हो जाता है कि पुरुष के संयोग से प्रकृति अपना खेल उसके आगे खेला करती है। और यह पृष्टांत भी ठीक नहीं कि जिस प्रकार गाय अपने यछड़े के लिये दूध देती है, उसी प्रकार पुरुष के लाभ के लिये प्रकृति सदा कार्य-तत्पर रहती है क्योंकि बछड़ा गाय के पेट से ही पैदा होता है इसलिये उस पर पुत्र-पात्सल्य के प्रेम का उदाहरण जैसा संगठित होता है, वैसा प्रकृति और पुरुप के विषय में नहीं कहा जा सकता (येसू. शांभा. २. २.३)। सांख्य-मत के अनुसार प्रकृति और पुरुष दोनों ताव अत्यंत भिा है-एक जड़ है, दूसरा सचेतन । अच्छा; जब ये दोनों पदार्थ सृष्टि के उत्पत्ति काल से ही एक दूसरे से अत्यंत भिन्न और स्वतंत्र हैं, तो फिर एक की प्रवृत्ति दूसरे के फायदे ही के लिये क्यों होनी चाहिये ? यह तो कोई समाधानकारक उत्तर नहीं कि उनका स्वभाव ही वैसा है। स्वभाव ही मानना हो, तो फिर इकल का जड़ाद्वैत-बाद क्यो पुरा है? हेकल का भी सिद्धान्त यही है न, कि मूल प्रकृति के गुणों की वृद्धि होते होते उसी प्रकृति में अपने आप को देखने की और स्वयं अपने विषय में विचार करने की चेतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है-अर्थात् यह प्रकृति का स्वभाव ही है। परन्तु इस मत को स्वीकार न कर सांख्यशास ने यह भेद किया है, कि 'नष्टर' अलग है और दृश्य सृष्टि ' अलग है। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि