२०४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सना करना अधिक सहज है। इसलिये तू मुझ में ही अपना भक्तिभाव रख (१२.८) मैं ही ब्रह्म का, अय्यय मोक्ष का, शाश्वत धर्म का, और अनन्त सुख का मूलस्थान हूँ (गी. १४.२७)। इससे विदित होगा कि गीता में आदि से अन्त तक अधिकांश में परमात्मा के व्यक्त स्वरूप का ही वर्णन किया गया है। इतने ही से केवल भक्ति के अभिमानी कुछ पंडितों और टीकाकारों ने यह मत प्रगट किया है कि, गीता में परमात्मा का व्यक्त रूप ही अन्तिम साध्य माना गया है। परन्तु यह मत सच नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उक्त वर्णन के साथ ही भगवान ने स्पष्टरूप से कह दिया है, कि मेरा व्यक्त स्वरूप मायिक है और उसके परे जो अव्यक्त रूप अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर है वही मेरा सच्चा स्वरूप है। उदाहरणार्थ सातवें अध्याय (गी. ७. २४) में कहा है कि- अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमनानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ " यद्यपि मैं अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को.अगोचर हूँ तो भी मूर्ख लोग मुझे व्यक्त समझते हैं, और व्यक्त से भी परे के मेरे श्रेष्ठ तथा अव्यय रूप को नहीं पहचानते;" और इसके अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं कि "मैं अपनी योगनाया से आच्छादित हूँ इसलिये मूर्ख लोक मुझे नहीं पहचानते " (७. २५)। फिर चौथे अध्याय में उन्होंने अपने व्यक्त रूप की उपपत्ति इस प्रकार वतलाई है मैं यद्यपि जन्मरहित और अन्यय हूँ, .तथापि अपनी ही प्रकृति में अधिष्टित हो कर मैं अपनी माया से (खात्ममायया) जन्म लिया करता हूँ अर्धान व्यक हुआ करता हूँ" (४.६) वे आगे सातवें अध्याय में कहते हैं यह त्रिगुणात्मक प्रकृति मेरी देवी माया है। इस माया को जो पार कर जाते हैं वे मुझे पाते हैं, और इस माया से जिन का ज्ञान नष्ट हो जाता है वे मूढ़ नराधम मुझे नहीं पा सकते" (७.१५) । अन्त में अठा- रहवें (१८.६५) अध्याय में भगवान् ने उपदेश किया है-“हे अर्जुन ! सब प्राणियों के हृदय में जीव रूप से परमात्मा ही का निवास है, और वह अपनी माग से यंत्र की भांति प्राणियों को घुमाता है। भगवान् ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखाया है, वही नारद को भी दिखलाया था। इसका वर्णन महाभारत के शान्ति- पान्तर्गत नारायणीय प्रकरण (शां. ३३८) में है और हम पहले ही प्रकरण में बतला चुके हैं, कि नारायणीय यानी भागवतधर्मही गीता में प्रतिपादित किया गया है। नारद को इजात नेत्रों,रहो तथा अन्य दृश्य गुणों का विश्वरूप दिखला कर भगवान ने कहा:- माया ह्येपा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद । सर्व भूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि । तुम मेरा जो रूप देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। इससे तुम यह न समझो कि मैं सर्वभूतों के गुणों से युक्त हूँ।" और फिर यह भी कहा है कि "मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी, अव्यक और नित्य है। उसे सिद्ध पुरुष पहचानते -