अध्यात्म। २०५ हैं" (शां. ३३६. ४४, ४८) । इससे कहना पड़ता है, कि गीता में वर्णित, भगवान् का अर्जुन को दिखलाया जुमा, विधरूप भी मायिक ही था। सारांश, उपर्युक्त विवे- चन से इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता कि गीता का यही सिद्धान्त होना चाहिये-कि यपि केवल उपासना के लिये व्यक्त स्वरूप की प्रशंसा गीता में भगयान् ने की है, तथापि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप पप्या परीन इन्द्रिय को अगोचर ही है और उस सध्या से व्यक्त होना ही उसकी गाया है और इस मापासे पार हो कर जब तक मनुष्य को परमात्मा के शुद्ध रागा अगला रूप का ज्ञान न हो, तब तक उसे गोश नहीं मिल सकता । पय: इसका शधिक विचार सागे करेंगे कि भाया क्या पस्नु ई । ऊपर दिये गये वचनों से इतनी यात स्पष्ट है कि यह माया. पाद श्रीशंकराचार्य ने नये सिरे से नहीं उपस्थित किया , किन्तु उनके पहले ही भगवडीता, महाभारत र भागयत धर्म में भी यह प्राय माना गया था। वेता- श्वतरोपनिपद में भी सृष्टि की उत्पत्ति इस प्रकार कही गई है- “मायां तु प्रकृति विधामायिन तु महेशरम् " (ता. १. १०) सत् माया ही (सांगयों की) प्रकृति है और परमेयर उस माया का अधिपति पीर पट्टी अपनी माया से विध निर्मागा करता है। अब इतनी यात ययपि स्पष्ट हो चुकी कि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप व्यक्त नहीं अध्यक्त ई, तथापि थोड़ा सा यह विचार होना भी अवश्यक है कि परमात्मा का यह श्रेष्ठ सम्यक स्वरूप सगुगाईया निर्गुण । जय कि सगुण प्रत्यक का हमारे सामने यह एक उदाहरण है. कि सांग्यशाग की प्रकृति अध्यक्त (अर्थात इन्द्रियों को मगोचर) झोगे पर भी सगुगा प्रधान सत्व-रज-तम-गुगामग. तय फार लोग यह कहते हैं कि परमेश्वर का सच्या. और श्रेय रूप भी उसी प्रकार सगुगा माना जाये। सपनी माया भीसे क्यों न हो; परन्तु जब कि पक्षी शय्या परमेश्वर व्यक्त-सृष्टि निर्माण करता है (गी. ६८) और सब लोगों के हृदय में रह कर उनसे सारे व्यापार फराता है (८.६), जय कि यही सय यज्ञों का भार और प्रभु (६. २४) जन कि. प्राणियों के सुख-दुख प्रादि सब भाव ' उसी से उत्पन्न होते हैं (१०.५), और जय कि भागिायों के हवय में श्रद्धा उत्पस करनेवाला भी यही है एवं "लभरी च ततः कामान् मयैव विदितान हि तार " (७. २२)-प्रागियों की वासनामों का फल देनेवाला भी यही तर तो यही यात सिद्ध होती है, कि यह अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर भले ही हो, तथापि वह दया, पात्वयादि गुणों से युक्त अर्यात सगुण अवश्य ही होना चाहिये । परन्तु इसके पिरन्तु भगवान ऐसा भी कहते है, किन मां फर्माशि लिम्पन्ति "-मुझे कर्मों का अर्थात् गुगाों का भी कभी स्पर्श नहीं होता (४.१४); प्रकृति के गुणों से मोहित हो कर मूर्ख लोग आत्मा ही को कर्ता मानते हैं (३.२७; १४.१९.); अथया, यह प्रत्यय और प्रकर्ता परमेश्वर ही प्राणियों के हृदय में जीवरप से नियास करता है (१३.३१) सौर इसी लिये, यरापि पद प्राणियों के कर्तृत्य और कर्म से पस्तुतः पालिस है, तथापि प्रज्ञान में फंसे .
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