२०६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । हुए लोग मोहित हो जाया करते हैं (५.१४,१५)। इस प्रकार अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर परमेश्वर के रूप सगुण और निर्गुण-दो तरह के ही नहीं हैं किन्तु इसके अतिरिक्त कहीं कहीं इन दोनों रूपों को एकत्र मिला कर भी अध्यक्त परमेश्वर का वर्णन किया गया है। उदाहरणार्थ, “ भूतभृत् न च भूतस्यो " (६.५) मैं भूतोंका आधार होकर भीउनमें नहीं हूँ, “परब्रह्म न तो सत् है और न असत" (१३.१२); "सवैद्रियवान होने का जिसमें भास हो परन्तु जो सर्वेन्द्रिय-हित है। और निर्गुण हो कर गुणों का उपभोग करनेवाला है" (१३.१४); दूर है और समीप भी है" (१३.१५); " अविभक्त है और विभक्त भी देख पड़ता है" (१३.६) -इस प्रकार परमेश्वर के स्वरूप का सगुण-निर्गुण मिश्रित अर्थात् परस्पर विरोधी वर्णन भी किया गया है । तथापि प्रारम्भ में, दूसरे ही अध्याय में कहा गया है कि यह आत्मा अध्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य है। (२.२५); और फिर तेरहवें अध्याय में " यह परमात्मा अनादि, निर्गुण और अव्यक्त है इसलिये शरीर में रह कर भी न तो यह कुछ करता है और न किसी में लित होता है" (१३.३१)-इस प्रकार परमात्मा के शुद्ध, निर्गुण, निरवयव, निर्विकार, अचिन्त्य, अनादि और अन्यक्त रूप की ही श्रेष्ठता का वर्णन गीता में किया गया है। भगवंद्वीता की भाँति उपनिषदों में भी अव्यक्त परमात्मा का स्वरूप तीन प्रकार का पाया जाता है-अर्थात कभी सगुण, कभी उभयविध यानी सगुणनिर्गुण मिश्रित और कभी केवल निर्गुण । इस बात की कोई आवश्यकता नहीं कि उपा- सना के लिये सदा प्रत्यक्ष मूर्ति ही नेत्रों के सामने रहे । ऐसे स्वरूप की भी उपासना हो सकती है कि जो निराकार अर्थात् चतु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अगोचर हो । परन्तु जिसकी उपसना की जाय, वह चतु यादि ज्ञानेन्द्रियों को गोचर भले ही न हो; तो भी मन को गोचर हुए बिना उसकी उपासना होना सम्भव नहीं है। उपासना कहते हैं चिन्तन, मनन या ध्यान को । यदि चिन्तित वस्तु का कोई रूप न हो, तो ग सही; परन्तु जब तक उसका अन्य कोई भी गुगण मन को मालूम न हो जाय तब तक वह चिन्तन करेगा ही किसका? अतएव उपनिपदों में जहाँ जहाँ अव्यक्त अर्थात् नेत्रों से न दिखाई देनेवाले परमात्मा की (चिन्तन, मनन, ध्यान) उपासना बताई गई है, वहाँ वहाँ अव्यक्त परमेश्वर सगुण ही कल्पित किया गया है । परमात्मा में कल्पित किये गये गुण उपासक के अधिकारानुसार न्यूनाधिक व्यापक या सात्विक होते हैं और जिसकी जैसी निष्टा हो उसको वैसा ही फल भी मिलता है। छांदोग्योपनिषद् (३. १४.१) में कहा है, कि 'पुरुष ऋतु- मय है, जिसका जैसा ऋतु (निश्चय) हो, उले मृत्यु के पश्चात् वैसा ही फल भी मिलता है, और भगवद्गीता भी.कहती है- देवताओं की भक्ति करनेवाले देवताओं में और पितरों की भक्ति करनेवाले पितरों में जा मिलते हैं। (गी. २५), अथवा 'यो यस्छूदः स एव सः-जिसकी जैसी श्रद्धा हो उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है (१७.३) । तात्पर्य यह है कि उपासक के अधिकार-भेद के
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