पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२४७

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२०८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । को ब्रह्म का मूर्तरूप कहा है फिर वायु तथा आकाश को अमूर्तरूप कह कर दिखाया है, कि इन अमूर्ती के सारभूत पुरुषों के रूप या रङ्ग बदल जाते हैं। और अन्त में यह उपदेश किया है कि 'नेति' 'नेति' अर्थात् अब तक जो कहा गया है, वह नहीं है, वह ब्रह्म नहीं है-इन लब नाम-रूपात्मक मूर्त या अमूर्त पदार्थों के परे जो 'अगृह्य ' या अवर्णनीय ' है उसे ही परब्रह्म समझो (वृह. २.३.६ और वैसू. ३. २. २२)। अधिक क्या कह; जिन जिन पदार्थों को कुछ नाम दिया जा सकता है उन सब से भी परे जो है वही ब्रह्म है और उस ब्रह्म का अन्यक तय निर्गुण स्वरूप दिखलाने के लिये नेति नेति' एक छोटा सा निर्देश, आदेश या सूत्र ही हो गया है और वृहदारण्यक उपनिषद् में ही उसका चार बार प्रयोग हुआ है (बृह. ३. ६. २६, ४. २.४, १. ४. २२, ४. ५. १५)। इसी प्रकार दूसरेउप- निपदों में भी परब्रह्म के निर्गुण और अचिन्त्य रूप का वर्णन पाया जाता है जैसे- " यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्म मनसा सह" (तैत्ति. २.६);" अद्रेश्यं (अश्य), अग्राह्य " (मुं. १. १.६)," न चतुपा गृखते नाऽपि वाचा (मुं.३.१.८); अथवा- अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तयारसं नित्यमगन्धवच यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ॥ अर्थात् वह परग्रह्मा, पञ्चमहाभूतों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन पाँच गुणों से रहित, अनादि-अनन्त और अव्यय है (कठ. ३. १५; वैसू. ३.२. २२-३० देखो) महाभारतान्तर्गत शान्तिपर्व में नारायणीय या भागवतधर्म के वर्णन में भी भगवान् ने नारद को अपना सच्चा स्वरूप 'अदृश्य, अप्रेय, अस्पृश्य, निर्गुण, निष्कल (निरवयव), अज, नित्य, शाश्वत और निष्क्रिय ' बतला कर कहा है कि वही सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय करनेवाला त्रिगुणातीत परमेश्वर है, और इसी को 'वासुदेव परमात्मा' कहते हैं (मभा. शां. ३३६.२१-२८)। उपर्युक्त वचनों से यह प्रगट होगा, कि न केवल भगवद्गीता में ही बरन् महा- भारतान्तर्गत नारायणीय या भागवतधर्म में और उपनिषदों में भीपरमात्मा का अव्यक्त स्वरूप हीन्यक स्वरूप से भ्रष्ट माना गया है, और यही अव्यक्त श्रेष्ठ स्वरूप वहाँ तीन प्रकार से वर्णित है अर्थात् सगुण, सगुण-निर्गुण और अन्त में केवल निर्गुण । अब प्रश्न यह है, कि अव्यक्त और श्रेष्ठ स्वरूप के उक्त तीन परस्परविरोधी रूपों का मेल किस तरह मिलाया जावे ? यह कहा जा सकता है, कि इन तीनों में से जो सगुण- निर्गुण अर्थात् उभयतात्मक रूप है, वह सगुण से निर्गुण में (अथवा अज्ञेय में) जाने की सीढ़ी या साधन है। क्योंकि, पहले सगुण रूप का ज्ञान होने पर ही धीरे धीरे एक एक गुण का त्याग करने से, मिर्गुण स्वरूप का अनुभव हो सकता है और इसी रीति से ब्रह्मप्रतीक की चढ़ती हुई उपासना उपनिपदों में यतलाई गई है। उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय उपनिपद् की भृगुवही में वरुण ने भृगु को पहले यही उप- देश किया है कि अन्न ही ब्रह्म है। फिर क्रम क्रम से प्राण, मन, विज्ञान और