पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२४८

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अध्यात्मा २०६ प्रानन्द-इन ब्रह्मरूपों का ज्ञान उसे करा दिया है (तौत्ति. ३.२-६) अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है, कि गुण-बोधक विशेषणों से निर्गुण रूप का वर्णन करना असम्भव है, अतएव परस्पर विरोधी विशेषणों से ही उसका वर्णन करना पड़ता है। इसका कारण यह है, कि जब हम किसी वस्तु के सम्बन्ध में दूर ' या 'सत्' शब्दों का उपयोग करते हैं, तब हमें किसी अन्य वस्तु के समीप' या 'असत् ' झोने का भी अप्रत्यक्ष रूप से योध हो जाया करता है। परन्तु यदि एक ही ब्रह्मा सर्वव्यापी है, तो परमेश्वर को दूर' या 'सत्' कह कर ' समीप' या 'असत्' किसे कहें ? ऐसी अवस्था में दूर नहीं, समीप नहीं; सत् नहीं, असत् नहीं- इस प्रकार की भाषा का उपयोग करने से दूर और समीप, सत् और असत् इत्यादि परस्पर-सापेक्ष गुणों की जोड़ियों विलगा दी जाती है। और यह बोध होने के लिये परस्पर-विरुद्ध विशेषणों की भाषा का ही व्यवहार में उपयोग करना पड़ता है कि जो कुछ निर्गुण, सर्वव्यापी, सर्वदा निरपेक्ष और स्वतंत्र बचा है, वही सच्चा ब्रह्म है (गी. १३. १२) जो कुछ है वह सब ब्रह्म ही है, इसलिये दूर वही, समीप भी वही, सत् भी वही और असत् भी वही है। अतएव दूसरी दृष्टि से उसी ब्रह्म का एक ही समय परस्पर-विरोधी विशेपणों के द्वारा वर्णन किया जा सकता है (गी. ११.३७, १३.१५) । अब यद्यपि उभयविध सगुण-निर्गुण वर्णन की उपपत्ति इस प्रकार बतला चुके तथापि इस बात का स्पष्टीकरण रहही जाता है कि एक ही परमेश्वर के परस्पर विरोधी दो स्वरूप-सगुण और निर्गुण-कैसे हो सकते हैं । माना कि जब अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त रूप अर्थात् इन्द्रिय-गोचर रूप धारण करता है, तव वह उसकी माया कहलाती है। परन्तु जब वह व्यक्त यानी इन्द्रियगोचर-न होते हुए अव्यक्त रूप में ही निर्गुण का सगुण हो जाता है, तब उसे क्या कहें ? उदा- हरणार्थ, एक ही निराकार परमेश्वर को कोई 'नेति नेति' कह कर निर्गुण मानते हैं। और कोई उसे सत्वगुण सम्पन्न, सर्वकर्मा तथा दयालु मानते हैं । इसका रहस्य क्या है ? उक्त दोनों में श्रेष्ठ पक्ष कौन सा है ? इस निर्गुण और अध्यक्त ग्रह से सारी व्यक्त सृष्टि और जीव की उत्पत्ति कैसे हुई ? - इत्यादि यातों का खुलासा हो जाना आवश्यक है । यह कहना मानों अध्यात्मशास्त्र की जड़ ही को काटना कि, सव संकल्पों का दाता अव्यक्त परमेश्वर तो यथार्थ में लगुण ई और उपनि- पदों में या गीता में निर्गुण-स्वरूप का जो वर्णन किया गया है, वह केवल अति- शयोक्ति या प्रशंसा है। जिन बड़े बड़े महात्माओं और ऋषियों ने एकाम मन करके सूक्ष्म तथा शान्त विचारों से यह सिद्धान्त हुँद निकाला, कि " यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" (ते. २.६.) मन को भी जो दुर्गम है और वाणी भी जिसका वर्णन नहीं कर सकती, वही अन्तिम ब्रह्मस्वरूप है-उनके श्रात्मानुभव को अतिशयोक्ति कैसे कह ! केवल एक साधारण मनुष्य अपने तुन्द्र मन में यदि अनन्त निर्गुण ब्रस को ग्रहण नहीं कर सकता इसलिये उसका यहकहना, कि सबा बम सगुण ही है, मानों सूर्य की अपेक्षा अपने छोटे से दीपक को श्रेष्ठ बतलाना है ! हाँ; यदि गी.र.२७ -