पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२५७

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२१८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सत्यं नामाऽध्ययं नित्यमविकारि तथैव च।* अर्थात् "सत्य वही है कि जो अव्यय है अर्थात् जिलका कभी नाश नहीं होता, जो नित्य है अर्थात् सदा-सर्वदा बना रहता है, और अविकारी है अर्थात् जिसका स्वरूप कभी बदलता नहीं" (ममा. शां. १६२. १०)। अभी कुछ और थोड़ी देर में कुछ कहनेवाले मनुष्य को झूठा कहने का कारण यही है, कि वह अपनी बात पर स्थिर नहीं रहता-इधर उधर डगमगाता रहता है। सत्य के इस निरपेन लक्षण को स्वीकार कर लेने पर कहना पड़ता है, कि आँखों से देख पड़नेवाला पर हर घड़ी में बदल- नेवाला नाम-रूप मिथ्या है उस नाम-रूप से ढका हुआ और उसी के मूल में सदैव एक ही सा स्थित रहनेवाला अमृत वस्तुतत्त्व ही वह आँखों से भले ही न देख पड़े-ठीक ठीक सत्य है। भगवद्गीता में ब्रह्म का वर्णन उसी नीति से किया गया है 'यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति' (गी.८. २०१३. २७) अक्षर ब्रह्म वही है कि जो सब पदार्थ अर्थात् सभी पदायों के नाम-रूपात्मक शरीर न रहने पर भी, नष्ट नहीं होता । महाभारत में नारायणीय अथवा भागवत धर्म के निरूपण में वहीं श्लोक पाठभेद से फिर यः स सर्वेषु भूतेषु' के स्थान में 'भूतप्रामशरीषु' हो कर पाया है (ममा. शां. ३३६. २३)। ऐसे ही गीता के, दूसरे अध्याय के सोलहवें और सत्रहवें श्लोकों का तात्पर्य भी यही है । वेदान्त में जब आभूषण को 'मिथ्या' और सुवर्ण को 'सत्य' कहते हैं, तब उसका यह मतलब नहीं है कि वह ज़ेवर निरुपयोगी या विलकुल खोटा है अर्थात् आँखों से दिखाई नहीं पड़ता या मिट्टी पर पन्नी चिपका कर बनाया गया है अर्थात् वह अस्तित्व में है ही नहीं। यहाँ 'मिथ्या' शब्द का प्रयोग पदार्य के रङ्ग-रूप आदि गुणों के लिये और आकृति के लिये अर्थात् ऊपरी दृश्य के लिये किया गया है, भीतरी द्रव्य से उसका प्रयोजन नहीं है । स्मरण रहे कि तात्विक द्रव्य तो सदैव सत्य है। वेदान्ती यही देखता है कि पदार्थमात्र के नाम-रूपात्मक आच्छादन के नीचे, मूल में कौन सा तत्त्व है, और तत्वज्ञान का सच्चा विषय है भी यही । व्यवहार में यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि गहना बनवाने में चाहे जितनी बनवाई देनी पड़ी हो, पर आपत्ति के समय जव उसे बेचने के लिये शराफ की दूकान पर ले जाते हैं तब वह साफ़ साफ कह देता है कि " मैं नहीं जानना चाहता कि गहना गढ़वाने में तोले पीछे क्या मेहनत देनी पड़ी है, यदि सोने के चलतू भाव में येचना चाहो, तो हम ले लेंगे" ! वेदान्त की परिभापा में इसी विचार का इस ढंग से व्यक्त करेंगे; शरीफ को गहना मिय्या और उसका सोना भर सत्य देख पड़ता है। इसी प्रकार यदि किसी नये मकान को बेचें तो उसकी सुन्दर बनावट (म), और गुञ्जाइश की जगह (आकृति)

  • ग्रीन ने real (सन या सत्य) की व्याख्या वतलाते समय 1. Whatever

anything is really, it is unalterably " FET (Prolegomena to Ethics, 525) ग्रीन की यह व्याख्या और महाभारत की उक्त व्याख्या-दोनों तत्त्वतः एक ही हैं।