पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२५६

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अध्यात्म। २१७ भिन्न, जो कुछ अदृश्य नित्य द्रव्य है उसे कान्ट ने अपने अन्य में वस्तुतत्त्व' कहा है, और नेत्र आदि इन्द्रियों को गोचर होनेवाले नाम-रूपों को बाहरी दृश्य ' कहा है । परन्तु वेदान्तशाला में, नित्य बदलनेवाले नाम-रूपात्मक श्य जगत् को 'मिथ्या ' या ' नाशवान् । और मूलद्रव्य को 'सत्य ' या 'अमृत' कहते हैं। सामान्य लोग सत्य की व्याख्या यों करते हैं कि 'चक्षु सत्यं' अर्थात् जो आँखों से देख पड़े वही सत्य है और व्यवहार में भी देखते हैं कि किसी ने स्वर में लाख रुपया पा लिया अथवा लाख रुपया मिलने की बात कान से सुन ली, तो उस स्वम की बात में और सचमुच लाख रुपये की रकम के मिल जाने में घड़ा भारी अन्तर रहता है। इस कारण एक दूसरेसे सुनी हुई और आँखों से प्रत्यक्ष देखी हुई-इन दोनों बातों में किस पर अधिक विद्यास करें, आँखों पर या कानों पर? इसी दुविधा को मेटने के लिये वृहदारण्यक उपनिपद् (५.१४.४) में यह ' चतुर्वं सत्यं ' वाक्य आया। किन्तु जिस शास्त्र में रुपये के खरे-खोटे होने का निश्चय ' रुपये की गोल गोल सूरत और उसके प्रचलित नाम से करना है, वहाँ सत्य की इस सापेक्ष व्याख्या का क्या उपयोग होगा ? हम व्यवहार में देखते हैं कि यदि किसी की बात का ठिकाना नहीं है और यदि वह घण्टे-घण्टे अपनी यात यदलने लगे, तो लोग उसे झूठा कहते हैं। फिर इसी न्याय से रुपये के नाम-रूप को (भीतरी द्रव्य को नही) खोटा अथवा झूठ कहने में क्या हानि है? क्योंकि रुपये का जो नाम-रूप आज इस घड़ी है, उसे दूर करके, उसके बदले करधनी' या ' कटोरे' का नाम- रूप उसे दूसरे ही दिन दिया जा सकता है अर्थात् हम अपनी आँखों से देखते हैं कि यह नाम-रूप हमेशा बदलता रहता है, इसमें नित्यता कहाँ है? अब यदि कहें कि जो आँखों से देख पड़ता है, उसके सिवा अन्य कुछ सत्य नहीं है तो एकीकरण की जिस मानसिक क्रिया में सृष्टि-ज्ञान होता है, वह भी तो आँखों से नहीं देख पड़ती-अतएव उसे भी झूठ कहना पड़ेगा। इस कारण हमें जो कुछ ज्ञान होता है, उसे भी असत्य-भूठ-कहना पड़ेगा। इन पर, और ऐसी ही दूसरी कठिनाइयों पर ध्यान दे कर " चर्तुवै सत्यं " जैले सत्य के लौकिक और सापेक्ष लक्षण को ठीक नहीं माना है किन्तु सर्वोपनिपद में सत्य की यही व्याख्या की है कि सत्य वही है जिसका अन्य बातों के नाश हो जाने पर भी कभी नाश नहीं होता । और इसी प्रकार महाभारत में भी सत्य का यही लक्षण बतलाया गया है- . कान्ट ने अपने Critique of Pure Reason नामक ग्रन्थ में यह विचार किया है । नाग-रूपात्मक संसार की जड़ में जो द्रव्य है, उसे उराने 'ग् आन् जिश (Ding an sich-Thing in itsolf) कहा है, और हमने उसी का भाषान्तर वस्तुतत्व किया है । नाम-रूपों के बाहरी दृश्य को कान्ट ने एरशायग' ( Ersohei- nung-appearance) कहा है | कान्ट करता है कि वस्तुतत्त्व ' मोय है। गी.र.२८ .