पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७ गीता के विपयों की अनुक्रमणिका । छठा प्रकरण-आधिदैवतपक्ष क्षेत्र-क्षेत्रश-विचार। पश्चिमी सदसद्विवेकदेवतापन- उसी के समान मनोदेवता के सम्बन्ध में हमारे ग्रन्थों के वचन -आधिदैवत पक्ष पर प्राधिभौतिक पक्ष का आक्षेप - नादत और अभ्यास से कार्य प्रकार्य का निर्णय शीघ्र हो जाता है-सदसद्विवेक कुछ निराली शक्ति नहीं है - अध्यात्मपक्ष का आक्षेप-मनुष्यदेहरूपी बड़ा कारखाना -कर्म- न्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार-सन और अद्धि के पृथक् पृथक् काम - व्यवसा. यात्मक और चासनात्मकशुद्धि का भेद एवं सम्बन्ध -व्यवसायात्मक बुद्धि एक ही है परन्तु सात्विक आदि भेदों से तीन प्रकार की है-सदसद्विवेक बुद्धि इसी में है, पृथक् नहीं है-क्षेत्र-क्षेत्र विचार का और चार-अक्षरविचार का स्वरूप एवं कर्मयोग से सम्बन्ध-क्षेत्र शब्द का अर्थ-नेवन का अर्थात् प्रात्मा का अस्तित्व - घर- अक्षर-विचार की प्रस्तावना । प्र. १३३-१४८। सातवाँ प्रकरण-कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर विचार । तर और अक्षर का विचार करनेवाले शान-काणादों का परमाणु-चाद: कापिल सांख्य लांख्य शब्द का अर्थ- कापिल सांख्य विषयक अन्ध-सत्कार्य- वाद-जगत् का मूल द्वय जथवा प्रति एक ही है-सत्व, रज और तब उसके तीन गुण हैं-लिगुण की साम्यावस्था और पारस्परिक रगड़े-झगड़े से नाना पदार्थों की उत्पत्ति-प्रकृति एव्या, असरिडत, एक ही और प्रचेतन है-व्यक्त से व्यक्त -प्राति से ही गन और सुदि की उत्पत्ति - सत्यशास को हेरुल का जदाद्वैत और प्रति से आत्मा की उत्पत्ति रवीकृत नहीं-प्रशाते और पुरुष दो स्वतन्त्र तत्व है-इनमें पुरुप अकर्ता, निर्गुण और उदासीन है, सारा कर्तृत्व प्रकृति का है दोनों के संयोग से सृष्टि का विस्तार -प्राति और पुरुष के भेद को पहचान लेने से कैवल्या की अर्थात मोक्ष की प्रालि-मोक्ष किसका होता है, प्रति का या पुरुष का?-सांख्यों के असंख्य पुरुप,और वेदान्तियों का एक पुरुष-सिगुणातीतमयस्या सांख्यों के और तत्साश गीता के सिद्धान्तों के भेद ।... पृ. १५६-१६ आठवाँ प्रकरण-विश्व की रचना और सहार। प्रकृति का विस्तार -ज्ञान-विज्ञान का लक्षण -भित्र-भित सृष्टयुत्पत्तिमम और उनकी अन्तिम एकवाक्यता-आधुनिक उत्सान्ति-वाद का स्वरूप और सांख्यों के गुणोत्कर्ष ताव से उसकी समता -गुणोत्कर्ष का अथवा गुगा-परिणामवाद का निरूपण -प्रशति से प्रथम व्यवसायात्मक वृद्धि की और फिर अहंकार की उत्पत्ति- उनके त्रिघात अनन्तभेद - अहंकार से फिर सेन्द्रिय-सृष्टि के सन सहित ग्यारह तत्वों की, और निरिन्द्रिय-सृष्टि के तन्मात्ररूपी पाँच तत्वों की उत्पत्ति - इस बात का निरूपण कितन्माताएँ पाँच ही क्यों हैं और सूक्ष्मेन्द्रियाँ ग्यारह ही क्यों. हैं-सूक्ष्म सृष्टि से स्थूल विशेप-पच्चीस तत्वों का ब्रह्माण्डवृक्ष-अजुगीता का ब्रह्मवृक्ष और गीता का अश्वत्थवृक्ष -पच्चीस तत्वों का वर्गीकरण करने की, -