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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६२

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अध्यात्म । २२३ - कुछ लोग कहते हैं कि धौद्धों का विज्ञान-वाद यदि वेदान्त-शास्य को सम्मत नहीं है, तो श्रीशराचार्य के माया-बाद का भी तो प्राचीन उपनिपदों में वर्णन नहीं है इसलिये उसे भी चेदान्तशास्त्र का मूल भाग नहीं मान सकते । श्रीशङ्कराचार्य का मत, कि जिसे माया-बाद कहते हैं, यह है कि बाएसष्टि का, गाँखों ले देख पड़ने- पाला, नाम-रूपात्मक स्वरूप मिथ्या है, उसके मूल में जो अव्यय और नित्य द्रव्य है वही सत्य है। परन्तु उपनिषदों का मन लगा कर अध्ययन करने से कोई भी सहज ही जान जायेगा कि यह माक्षप निराधार है । यह पहले ही पतला चुके हैं कि सत्य' शब्द का उपयोग साधारण व्यवहार में आँखों से प्रत्यक्ष देख पड़नेवाली घस्तु के लिये किया जाता है । अतः सत्य' शब्द के इसी प्रचलित अर्थ को ले कर उपनिषदों में कुछ स्थानों पर आँखों से देख पड़नेवाले नाम-रूपात्मक वाम पदार्थों को सत्य', और उन नाम-रूपों से माच्छादित अन्य को 'अमृत' नाम दिया गया है । उदाहरण लीजिये यहदारण्यक उपनिपद् (१.६.३) में “ तदे- तदमृतं सत्येनन्छ" -वह अमृत सत्य से पाच्छादित है कह कर फिर अमृत पौर सत्य शब्दों की यह व्याख्या की है कि "प्राणो या अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्या- मयं प्राणश्छतः" अर्थात् प्रागा अमृत है और नाम-रूप सत्य है, एवं इस नाम-रूप सत्य से प्राण उँका दुसा है ! यहाँ प्राण का अर्थ प्राण-स्यरूपी परग्रहा है । इससे प्रगट है कि भागे के उपनिषदों में मिसे मिथ्या ' और 'सत्य' कहा है, पहले उसी के नाम क्रम से 'सत्य' और 'अमृत'थे। अनेक स्थानों पर इसी अमृत को सत्यस्य सत्य - आँखों से देस पड़नेवाले सत्य के भीतर का अन्तिम सत्य कहा है। किन्तु उक्त साक्षेप इतने ही से सिद्ध नहीं हो जाता कि सपनिषदों में कुछ स्थानों पर जाँखों से देख पढ़नेवाली सृष्टि को ही सत्य कहा है। क्योंकि गृहदारण्यक मैं ही, अन्त में यह सिन्धान्त किया है को यात्मरूप पर- ग्राम को छोड़ और सब 'मार्तम् । अर्थात् विनाशवान है (१.३.७२३) जय पहले पइल जगत के मूलतत्व की खोज होने लगी, तब शोधक लोग आँखों से देख पढ़नेवाले जगत को पहले से ही सत्य मान कर हूँढ़ने लगे कि उसके पेट में और कौन सा सूक्ष्म सत्य छिपा हुआ है। किन्तु फिर ज्ञात हुआ कि जिस घश्य सृष्टि के रूप को हम सत्य मानते हैं, वह तो असल में विनाशवान है और उसके भीतर कोई अविनाशी या अमृत ताव मौजूद है। दोनों यो पीच के इस भेद को जैसे जैसे प्राधिक व्यक्त करने की आवश्यकता होने लगी, वैसे ही पैसे सत्य' और 'अमृत' शब्दों के स्थान में अभिधा' और विद्या' एवं अन्त में 'माया' और 'सत्य' अथवा 'मिथ्या' और 'सत्य' इन पारिभाषिक शब्दों का प्रचार होतागया। क्योंकि ' सत्य शब्द काधात्वर्थ सदैव रहनेवाला है, इस कारण नित्य बदलनेवाले और नाशवान् नाम-रूप का सत्य कहना उत्तरोत्तर और भी अनुचित ऊँचने जगा । परंतु इस रीति से 'माया' अथवा 'मिथ्या ' शब्दों का प्रचार पीछे से भले ही हुआ हो तो भीये विचार बहुत पुराने जमाने से चले प्रारहे हैं कि जगर की वस्तुओं का यह दृश्य, 6 ,