२२४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । जो आंखों से देख पड़ता है, विनाशी और असत्य है। एवं उसका आधारभूत 'ताविक न्य' ही सत् या सत्य है । प्रत्यक्ष ऋग्वेद में ही कहा है कि “ एकं सविना बहुधा वदन्ति " (१.१६४.४६ और १०.११४.५)-मूल में जो एक और नित्य (सत्) है, उसी को विप्र (ज्ञाता) भिन्न भिन्न नाम देते हैं अर्थात् एक ही सत्य वस्तु नाम-रूप से भिन्न भिन्न देख पड़ती है। एक रूप के अनेक रूप कर दिख- लाने के अर्थ में, यह 'माया' शब्द ऋग्वेद में भी प्रयुक्त है और वहाँ यह वर्णन है कि, 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूपः ईयते' इन्द्र अपनी माया से अनेक रूप धारण करता है (ऋ. ६.४७.१८) । तैत्तिरीय संहिता (३.१.११) में एक स्थान पर 'माया' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है और श्वेताश्वतर उपनिषद् में इस 'माया' शब्द का नाम-रूप के लिये उपयोग हुआ है। जो हो; नाम-रूप के लिये 'माया' शब्द के प्रयोग किये जाने की रीति श्वेताश्वतर उपनिषद् के समय में भले ही चल निकली हो पर इतना तो निर्विवाद है कि नाम-रूप के शनित्य अथवा असत्य होने की कल्पना इससे पहले की है, 'माया' शब्द का विपरीत अर्थ करके श्रीशङ्कराचार्य ने यह कल्पना नई नहीं चला दी है। नाम-रूपात्मक सृष्टि के स्वरूपको, जो लोगश्रीशङ्कराचार्य के समान वेधड़क 'मिथ्या कह देने की हिम्मत न कर सके, अथवा जैसा गीता में भगवान् ने उसी अर्थ में 'माया' शब्द का उपयोग किया है, वैसा करने से जो हिचकते हॉ, चाहे तो खुशी से बृहदारण्यक उपनिषद् के ' और 'अमृत' शब्दों का उपयोग करें । कुछ भी क्यों न कहा जावे पर इस सिद्धान्त में ज़रा सी भी वाघा नहीं आती कि नाम-रूप "विनाशवान्' हैं,और जो तत्व उनसे आच्छादित है वह 'अमृत' या' अविनाशी' है एवं यह भेद प्राचीन वैदिक काल से चला आ रहा है । अपने आत्माको नाम-रूपात्मक बाह्यसृष्टि के सारे पदार्थों का ज्ञान होने के लिये, 'कुछ न कुछ एक ऐसा मूल नित्यद्न्य होना चाहिये कि जो नात्मा काआधारभूत हो और उसी के मेल का हो, एवं वाह्यसृष्टि के नाना पदार्थों की जड़ में वर्तमान रहता हो; नहीं तो वह ज्ञान ही न होगा। किन्तु इतना ही निश्चय कर देने से अध्यात्मशास्त्र का काम समाप्त नहीं हो जाता। वाहामुष्टि के मूल में वर्तमान इस नित्य द्रव्यं को ही वेदान्ती लोग 'ब्रह्म' कहते हैं और अब हो सके, तो इस ब्रह्म के स्वरूप का निर्णय करना भी आवश्यक है। सारे नाम-रूपात्मक पदार्थों के मूल में वर्तमान यह नित्यतत्व है अव्यक्त; इसलिये प्रगट ही है कि इसका स्वरूप नाम-रूपात्मक पदार्थों के समान व्यक और स्थूल (जड़) नहीं रह सकता। परन्तु यदि व्यक्त और स्यूल पदार्थों को छोड़ दें, तो मन, स्मृति, वासना, प्राण और ज्ञान प्रभृति बहुत से ऐसे अव्यक्त पदार्थ हैं कि जो स्थूल नहीं हैं एवं यह असम्भव नहीं कि परब्रह्म इनमें से किसी भी एक-बाध के स्वरूप का हो । कुछ लोग कहते हैं कि प्राण का और परग्रह का स्वरूप एक ही है। जर्मन पण्डित शोपेनहर ने परब्रह्म को वासना. स्मक निश्चित किया है। और वासना मन का धर्म है, अतः इस मत के अनुसार 6 सत्य
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