पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६६

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अध्यात्म। २२७ यही रूप प्रक्ष का भी होना चाहिये । सारांश, किसी भी रीति से विचार क्यों न किया जाय, सिन्छ यही होगा कि या सृष्टि के नाम और रूप से प्राच्छादित मातस्य, नाम-रूपात्मक प्रकृति के समान जड़ तो है ही नहीं किन्तु वासनात्मक मा, मनोमय प्रह, ज्ञानमय प्रम. प्रारामा अथवा *काररूपी शब्दबह-ये मा के रूप भी निम्न श्रेणी के हैं और ग्राम का वास्तविक स्वरूप इनसे परे है एवं इनसे अधिक योग्यता का अर्थात शुद्ध प्रात्मस्वरूपी है। और इस विषय का गीता में अनेक रूपानों पर जो उल्लेख है, उससे स्पष्ट होता है कि गीता का सिद्धान्त भी यही है (देखो गी. २,२०, ७.५, ८.४.१३.३३,१५,७,८). फिर भी यह न समझ लेना चाहिये कि प्रल और श्रात्मा के एकस्वरूप रहने के इस सिद्धान्त को हमारे शापियों ने ऐसी युति-प्रयुक्तियों से ही पहले खोजा था। इसका कारण इसी प्रकरण आरम्भ में पतला चुके हैं कि अध्यात्मशारा में अकेली युन्दि की ही सहायता से कोई भी एक ही अनुमान निश्चित नहीं किया जाता है, उसे सदैव प्रात्म-प्रतीति का सहारा रहना चाहिये। इसके अतिरिक्त सर्वदा देखा जाता है कि आधिभौतिक शास्त्र में भी अनुभव पहले होता है, और उसकी उपपत्ति या तो पीधे से मालूम हो जाती है, या हूँढ़ ली जाती है । इसी न्याय से उक्त ग्रहात्मैक्य की बुद्धिगम्य उपपत्ति निकलने से सैकड़ों वर्ष पहले, हमारे प्राचीन ऋषियों ने निर्णय कर दिया था कि " नेह नानाऽस्ति किंचन " (पृ. ४.४. १६; कल. ४. ११)-सृष्टि में देख पड़नेवाली भनेकता सच नहीं है, उसके मूल में चारों और एक ही अमृत, अव्यय और नित्यताव है (गी. १८.२०)। और फिर उन्होंने अपनी शान्तष्टि से यह सिद्धान्त ढूंढ़ निकाला कि, बाल सृष्टि के नाम-रूप से भाच्छादित अविनाशी तत्य और अपने शरीर का यह प्रात्मताप, कि जो पुद्धि से परे है-ये दोनों एक ही अमर और प्रय है अथवा जो तत्व प्रहायड में है वही पियड में यानी मनुष्य की देह में वास करता है एवं वृहदारण्यक उपनिषद में याशयस्य ने भैनेयी को, गार्गी धारणि प्रभृति को और जनक को (वृ. ३.५-८; १.२-४) पूरे वेदान्त का यही रहस्य घतलाया है। इसी उपनिपद में पहले कहा गया है, कि जिसने जान लिया कि "हाई प्रमास्मि "मैं ही परमस हूँ, उसने सब कुछ जान लिया (पृ. १.४.१०); और छान्दोग्य उपनिषद् के छठे अध्याय में श्वेतकेतु को उसके पिता ने प्रद्वैत वेदान्त का यही ताव अनेक रीतियों से समझा दिया है। जब यध्याय के प्रारम्भ में ग्वतकेतु ने अपने पिता से पूछा कि जिस प्रकार मिट्टी के एक लौंदे का भेद जान लेने से मिट्टी के नाम-रूपात्मक सभी विकार जाने जाते हैं, उसी प्रकार जिस एक ही वस्तु का ज्ञान हो जाने से सब कुछ समझ में आ जावे, वही एक वस्तु मुझे बतलामो, मुझे उसका ज्ञान नहीं; " तय पिता ने नदी, समुद्र, पानी और नमक प्रभृति अनेक दृष्टान्त दे कर समझाया कि पाए सृष्टि के मूल में जो द्रव्य है, वह (तत्) और तू (त्वम् ) अर्थात् तेरी देह का भात्मा दोनों एक ही है,- "तत्वमसि एवं

  • Groun's Prolegomena to Elitics, $$ 26-36.