२२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। ज्योंही तूने अपने आत्मा को पहाचना, त्याही तुझे आप ही मालूम हो जावेगा समस्त जगत् के मूल में क्या है। इस प्रकारे पिता ने श्वेतकेतु को भिन्न मिलना दृष्टान्तों से उपदेश किया है और प्रति बार " तत्वमसि "-वही तू है-इस सूत्र की पुनरावृत्ति की है (छां. ६.८-१६)।यह तत्वमसि' अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों में मुख्य वाक्य है। इस प्रकार निर्णय हो गया किब्रह्म आत्मस्वरूपी है। परन्तु प्रात्मा चिद्रूपी है, इसलिये सम्मन है कि कुछ लोग ब्रह्म को भी चिपी समझे । अतएव यहाँ ब्रह्म के, और उसके साथ ही साथै प्रात्मा के सच्चे स्वरूप का थोड़ा सा खुलासा कर देना आवश्यक है। आत्मा के सानिध्य से जड़ात्मक बुद्धि में उत्पन्न होनेवाले धर्म को चित् अर्याद ज्ञान कहते हैं । परन्तु जब कि बुद्धि के इस धर्म को आत्मा पर लादना उचित नहीं है, तव तात्त्विक दृष्टि से आत्मा के मूल स्वरूप को भी निर्गुण और अज्ञेय ही मानना चाहिये । अतएव कई-एकों का मत है कि यदि ब्रह्म आत्म- स्वरूपी है तो इन दोनों को, या इनमें से किसी भी एक को, चिद्रूपी कहना कुछ मंशा में गाया ही है। यह श्राक्षेप अकेले चिप पर ही नहीं है, किन्तु यह आप ही माप सिद्ध होता है कि परब्रह्म के लिये सत् विशेपण का प्रयोग करना भी उचित नहीं है क्योंकि सत् और असत्, ये दोनों धर्म परस्पर-विरुद्ध और सदैव परस्पर- सापेक्ष हैं अर्थात् भिन्न भिन्न दो वस्तुओं का निर्देश करने के लिये कह जाते हैं। जिसने कमी उजेला न देखा हो, वह अँधेरे की कल्पना नहीं कर सकता यही नहीं किन्तु वजेला' और 'अंधेरा' इन शब्दों की यह जोड़ी ही उसको सृमन पड़ेगी। सत् और असत् शब्द की जोड़ी (द्वन्द्व) के लिये यही न्याय उपयोगी है। जब हम देखते हैं कि कुछ वस्तुओं का नाश होता है, तब हम सब वस्तुओं के प्रसत् (नाश होनेवाली) और सत् (नाश. न होनेवाली), ये दो भेद करने लगते हैं अथवा सत् और असत् शब्द सूझ पड़ने के लिये मनुष्य की दृष्टि के आगे दो प्रकार के विरुद्ध धर्मों की आवश्यकता होती है। अच्छा, यदि: प्रारम्भ में एक ही वस्तु थी, तो द्वैत के उत्पन्न होने पर दो वस्तुओं के उद्देश से जिन सापेक्ष सत् और मसत् शब्दों का प्रचार हुआ है, उनका प्रयोग इस मूलवस्तु के लिये कैसे किया जावेगा? क्योंकि यदि इसे सत् कहते हैं तो शङ्का होती है कि क्या उस समय उसकी जोड़ का कुछ असन भी था? यही कारण ई जो ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (१०.१२८) में परब्रह्म को कोई भी विशेषण न दे कर सृष्टि के मूलतत्व.का वर्णन इस प्रकार किया है कि "जगत् के प्रारम्भ में न तो सत् था और न असत् ही था; जो कुछ था वह एक ही था।” इन् सत् भौर असत् शब्दों की जोड़ियाँ (अथवा इन्द) तो पीछे से निकली हैं; और गीता (७.२८, २.४५) में कहा है कि सत् और असत्, शीत और उपण आदि द्वन्द्वों से जिसकी बुद्धि क हो जावे, वह इन सब द्वन्द्वों से परे अर्थात् निन्द ब्रह्मपद को पहुँच जाता है। इससे देख पड़ेगा कि मध्यात्मशास्त्र के विचार कितने गहन और सूक्ष्म हैं । केवल तर्कदृष्टि से विचार
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