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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६९

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२३० गीतारहस्य अथषा कर्मयोगशाल। आदि इन्द्रियाँ यदि छूट नहीं जाती हैं, तो इन्द्रियाँ पृथक् हुई और उनको गोचर होनेवाले विषय पृथक् हुए यह भेद छूटेगा तो कैसे ? और यदि यह भेद नहीं छूटता, तो ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव कैसे होण? अव यदि इन्द्रिय-दृष्टि से ही वि. चार करें तो यह शङ्का एकाएक अनुचित भी नहीं जान पड़ती । परन्तु हो, गम्भीर विचार करने लगे तो जान पड़ेगा कि इन्द्रियाँ वाह्य विषयों को देखने का कामखुद- मुख्तारी से अपनी ही मर्जी से नहीं किया करती हैं। पहले वतला दिया है कि " चतुः पश्यति रूपाणि मनसा न तु चतुषा" (ममा. शां.३.१.१७)-किसी भी वस्तु को देखने के लिये (और सुनने आदि के लिये भी) नेत्रों को (से ही कान प्रभृति को भी) मन की सहायता प्रावश्यक है। यदि मन शून्य हो, किसी और विचार में डूबा हो, तो आँखों के मागे धरी हुई वस्तु मी नहीं सूझती। व्यव- हार में होनेवाले इस अनुभव पर ध्यान देने से सहज ही अनुमान होता है कि नेत्र प्रादि इन्द्रियों के अक्षुण्ण रहते हुए मी, मन को यदि उनमें से निकाल लें, तो इन्द्रियों के विषयों के द्वन्द्व बाह्य सृष्टि में वर्तमान होने पर भी अपने लिये न होने के समान रहेंगे । फिर परिणाम यह होगा कि मन केवल आत्मा में अर्थात् धात्म- स्वल्पी ब्रह्म में ही रव रहेगा, इससे हमें ब्रह्मात्मैक्य का साक्षात्कार होने लगेगा। ध्यान से, समाधि से, एकान्त उपासना से अथवा अत्यन्त ब्रह्म-विचार करने से, अंत में यह मानसिक स्थिति जिसको प्राप्त हो जाती है, फिर उसकी नज़र के आगे दृश्य सृष्टि के द्वन्द या भेद नाचते मले रहा करें पर वह उनसे लापरवा है- उसे वे देख ही नहीं पड़ते; और उसको अद्वैत ब्रह्म-स्वरूप का श्राप ही आप पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है। पूर्ण ब्रह्मज्ञान से अन्त में परमावधि की जो यह स्थिति प्राप्त होती है, इसमें ज्ञाता, जय और ज्ञान का तिहरा भेद अर्थात त्रिपुटी नहीं रहती, अथवा उपास्य और उपासक का द्वैतभाव भी नहीं वचने पाता। अतएव यह अवस्था और किसी दूसरे को वतलाई नहीं जा सकती; क्योंकि ज्यॉही 'दूसरे' शब्दं का उच्चारण किया, त्याही अवस्था विगड़ी और फिर प्रगट ही है कि मनुष्य अद्वैत से द्वैत में आ जाता है। और तो क्या, यह कहना भी मुश्किल है कि मुझे इस अवस्था का ज्ञान हो गया। क्योंकि मैं कहते ही, औरों से भिन्न होने की भावना मन में आ जाती है और ब्रह्मात्मैक्य होने में यह भावना पूरी बाधक है। इसी कारण से याज्ञवल्य ने वृहदारण्यक (१.५.१५, ४.३.२७) में इस परमावधि की स्थिति का वर्णन यों किया है.-"यन हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति... जिवति...णोति...विजानाति । ...यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत तत्केन के पश्येत ...जिनेद...ऋणुयात...विजानीगत ।...विज्ञातारमरे केन विजानीयात् । एतावरे खलु अमृतत्वमिति;" इसका भावार्य यह है कि " देखनेवाले (द्रष्टा) और देखने का पदार्थ जब तक बना हुआ था, वव तक एक दूसरे को देखता था, सूंघता था, सुनता था और जानता था; परन्तु जव समी आत्ममय हो गया (अर्थात् अपना और पराया मेद ही न रहा) तव.कौन किसको देखेगा, सूबेगा, सुनेगा और