पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२७०

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अध्यात्मा २३१ जानेगा? अरे ! जो स्वयं ज्ञाता अर्थात् जाननेवाला है, उसी को जाननेवाला और दूसरा कहाँ से लाओगे ?" इस प्रकार सभी प्रात्मभूत या प्राभूत हो जाने पर वहाँ भीति, शोक अथवा सुख-दुःख आदि द्वन्द्व भी रह कहीं सकते हैं (ईश.७)? पयोंकि जिससे रना है या जिसका शोक करना है, वह तो अपने से हम से- जुदा होना चाहिये, और घालारमैश्य का अनुभव हो जाने पर इस प्रकार की किसी भी भिन्नता को अवकाश ही नहीं मिलता। इसी दुःख-शोक-विरहित अवस्था को 'प्रानन्दमय ' नाम दे कर तैत्तिरीय उपनिषद् (२.८३.६) में कहा है कि यह धानन्द ही ब्रह्म है। किन्तु यह वर्गान भी गौण ही है। क्योंकि मानन्द का अनु- भव करनेवाला अय रही कहा जाता है? अतएव पृहदारण्यक उपनिपद् (१.३. ३२) में कहा है कि लौकिफ प्रानन्द की अपेक्षा प्रात्मानन्द कुछ विलक्षण होता है। ग्राम के वर्णन मैं जो 'प्रानन्द' शब्द पाया करता है, उसकी गौणता पर ध्यान दे कर ही अन्य स्थानों में प्रसवेत्ता पुरुप का अन्तिम वर्णन ('आनन्द' शब्द को निकाल पाहर कर) इतना ही किया जाता है कि प्रख भवति य एवं वेद" (इ. ४. ४. २५) अथवा " ब्रह्म चंद ब्रह्मैव भवति" (मुं.३.२,६)-जिसने प्रम को जान लिया, वह ब्रह्म ही हो गया । उपनिषदों (इ. २. ४. १२ घां.६. १३ ) में इस स्थिति के लिये यह दृष्टान्त दिया गया है कि नमक की टली जय पानी में घुल जाती है तब जिस प्रकार यह भेद नहीं रहता कि इतना भाग खारे पानी का है और इतना भाग मामूली पानी का है, उसी प्रकार महात्मैक्य का ज्ञान हो जाने पर सब घसमय हो जाता है। किन्तु उन श्री तुकाराम महाराज ने, कि जिनकी कहै नित्य घेदान्त वाणी,' इस खारे पानी के स्टान्त के बदले गुड़ का यह मीठा हटान्त दे कर अपने अनुभव का वर्णन किया है- गूंगे का गुड़ है भगवान , बाहर भीतर एक समान । किसका ध्यान करूँ सविवेक ? जल-तरंग से हैं हम एक ।। इसी लिये कहा जाता है कि परमस इन्द्रियों को अगोचर और मन को भी प्रगम्य होने पर भी स्वानुभवगम्य है अर्थात् अपने-अपने अनुभव से जाना जाता है। परमास की जिस प्रज्ञेयता का वर्णन किया जाता है वह ज्ञाता और ज्ञेयवाली द्वैती स्थिति की है। अद्वैत साक्षात्कारवाली स्थिति की नहीं । जव तक यह पुद्धि बनी है कि मैं अलग हूँ और दुनिया अलग है। तय तक कुछ भी क्यों न किया जाय, नमात्मैक्य का पूरा ज्ञान होना सम्भव नहीं है । किन्तु नदी यदि समुद्र को निगल नहीं सकती -उसको अपने में लीन नहीं कर सकती तो जिस प्रकार समुद्र में गिर कर नदी तप हो जाती है, उसी प्रकार परम्रा में निमम होने से मनुष्य को उसका अनुभव हो जाया करता है और फिर उसकी ऐसी ग्राममय स्थिति हो जाती है कि " सर्वभूतस्य- मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि" (गी.६.२८)-सारे प्राणी मुझ में हैं और मैं सब में हूँ। केन उपनिषद् में बड़ी खूबी के साथ परनाम के स्वरूप का विरोधाभा- 6