पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२७२

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अध्यात्म २३३ किया है कि हमने अपनी मृत्यु अपनी आँखों से देख ली, यह भी एक उत्सव हो गया।" व्यक अथवा अध्यक्त सगुग्ण घस की उपासना से ध्यान के द्वारा धीरे धीरे बढ़ता हुधा उपासक अन्त में "शहं प्रसास्मि" (पृ. १.४.१०)-मैं हीमा हूँ- की स्थिति में जा पहुंचता है और प्रशात्मक्य स्थिति का उसे साक्षात्कार होने लगता है। फिर उसमें वह इतना मन हो जाता है कि इस बात की और उसका ध्यान भी नहीं जाता कि मैं फिस स्थिति में हूँ अथवा किसका अनुभव कर रहा है। इसमें जागृति बनी रहती है, अतः इस अवस्या को न तो स्वम कह सकते हैं और न सुपुप्ति; यदि जागृत कई तो, इसमें ये सब व्यवहार रुक जाते हैं कि जो जागृत अवस्था में सामान्य रीति से हुआ करते हैं। इसलिये स्वम, सुपुति (नींद) अथवा जागृति- इन तीनों व्यावहारिक अवस्थामों से बिलकुल भिन्न इसे चौथी अथवा तुरीय अवस्था शास्त्रों ने कहा है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये पाता. लयोग की ष्टि से मुख्य साधन निर्विकल्प समाधि-योग लगाना है कि जिसमें द्वैत का ज़रा सा भी लवलेश नहीं रहता। और यही कारण है जो गीता (६.२०-२३) में कहा है कि इस निर्विकल्प समाधि-योग को अभ्यास से प्राप्त कर लेने में मनुष्य को उकताना नहीं चाहिये । यही ब्रह्मात्मैक्य स्थिति ज्ञान की पूर्णावस्था है। क्योंकि जब सम्पूर्ण जगत् महारूप अर्थात् एक ही हो चुका, तब गीता के शान- क्रियावाले इस लक्षण की पूर्णता हो जाती है, कि " अविभक्तं विभक्तपु"-अने- फत्व की एकता करना चाहिये और फिर इसके आगे किसी को भी अधिक ज्ञान हो नहीं सकता। इसी प्रकार नाम-रूप से पर इस अमृतत्व का जहाँ मनुष्य को अनुभव हुया कि जन्म-मरण का चबार भी श्राप ही से छूट जाता है। क्योंकि जन्म- मरण तो नाम-रूप में ही हैं और यह मनुष्य पहुँच जाता है उन नाम-रूपों से परे (गी. ८. २१)। इसी से महात्माओं ने इस स्थिति का नाम 'मरण का मरण' रख छोड़ा है। और इसी कारण से, याज्ञवल्क्य इस स्थिति को अमृतत्व की सीमा या पराकाधा कहते हैं। यही जीवन्मुक्तावस्था है। पातञ्जलयोगसूत्र और अन्य स्थानों में भी वर्णन है कि, इस अवस्था में साफाश-गमन आदि की कुछ अपूर्व अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं (पातालसू. ३. १६-४५); और इन्हों को पाने के लिये कितने ही मनुष्य योगाभ्यास की धुन में लग जाते हैं। परन्तु योगवासिष्ठ-प्रणेता कहते हैं कि आकाशगगन प्रति सिन्डियाँ न तो ब्रह्मनिष्ठ स्थिति का साध्य है और न उसका कोई भाग ही; अतः जीवन्मुक्त पुरुप इन सिद्रियों को पा लेने का उद्योग नहीं करता और बहुधा उसमें ये देखी भी नहीं जाती (देखो यो. ५.८४)। इसी कारण इन सिद्धियों का उल्लेख न तो योगवासिष्ट में ही और न गीता में ही कहीं है। वसिष्ट ने राम से स्पष्ट कह दिया कि ये चमत्कार तो माया के खेल हैं, कुछ ब्रा- विद्या नहीं हैं। कदाचित् ये सच्चे हो, हम यह नहीं कहते कि ये इंॉग ही जो हो; इतना तो निर्विवाद है कि यह प्रसविसा का विषय नहीं है। अतएव ये सिद्धियाँ मिल तो और न मिलें तो, इनकी परवा न करनी चाहियेनाझविद्याशाख का कथन गी.र. ३०